पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/९०

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आचार्य उपगुप्त ER भी नही। वे अति गम्भीर मुद्रा में घर से बाहर हुए। ग्रीष्म की ज्वलन्त लू और उत्ताप की तनिक भी परवाह न करके सैनिक ने पर्वत की उपत्यका मे घोड़ा छोड दिया था। आगे-आगे एक हरिण प्राण लेकर भाग रहा था। युवक सैनिक के धनुष पर बाण चढ़ा था। उसे उसने कान तक खीचकर मारा । बाण हरिण के पैरो में लगा। पर वह प्राण-सकट को समझकर गर्म-गर्म रुधिर-बिन्दु टपकाता आहत होकर उपत्यका के एक पार्श्व मे भागकर छिप गया। हरिण को सम्मुख न देखकर सैनिक घोड़े से उतर पड़ा। वह रक्तबिन्दु के चिह्न देखता-देखता आगे बढ़ा। सम्मुख एक घने अश्वत्थ के वृक्ष के नीचे शीतल छाया मे एक वृद्ध भिक्षु बैठा था। उसकी गोद में वही हरिण था। वह यत्न से उसके पैर से तीर निकालकर उसके घाव पर पट्टी बाध रहा था। युवक ने वहां पहुंचकर क्रोध से कहा-तू कौन है, पाखण्डी? "तुम्हारा कल्याण हो !" वृद्ध भिक्षु ने सिर उठाकर कहा। "पर तू कौन है ?" "मैं भिक्षु हूं।" "भिक्षु, तेरा यह साहस कि मेरे आखेट को हाथ लगा सके ? इसे अभी छोड़ . "क्यो?" "यह मेरा आखेट है।" "यह तेरा किसलिए है ?" "मैंने इसे मारा है।" "मारनेवाला किसीका स्वामी नहीं हुआ करता, शत्रु होता है; और शत्रु का कोई अधिकार नहीं होता। स्वामी होता है बनानेवाला। उसीका अधिकार भी होता है।" "तू बड़ा धृष्ट प्रतीत होता है !" "साधु के लिए विनय और धृष्टता क्या है ?" "तब इसे छोड़ दे-यह मेरा शिकार है।" "नही, यह मेरा आश्रित दीन पशु है।"