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पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/९१

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१२ आचार्य उपगुप्त "इसे मैंने मारा है। "इसकी मैंने रक्षा की है।" मैनिक का क्रोध और तेज मानो व्यर्थ जा रहा था। ऐसे धृष्ट प्रश्नोत्तर का उसे अभ्यास न था। परन्तु वृद्ध साधु का प्रभाव उसपर पड रहा था। उसने कहा- तू इसका क्या करेगा? "मै इसे नीरोग करके छोड़ दूगा, यह फिर आनन्द से विचरण करेगा।" "तू अवश्य इसका मांस खाएगा। तू धूर्त है, मेरा आखेट हड़पना चाहता है।" "युवक सैनिक ! शान्त हो, हिसक से रक्षक बड़ा है। जो व्यक्ति एक कीडा भी नही बना सकता, वह इतने बडे पशु को कैसे मारता है ? इसका उसे अधिकार क्या है ? हम लोग भक्षक नही रक्षक है। निकट ही हमारा विहार है, वहा बहुत- से बौद्ध भिक्षुक है, जो प्राणियों की सेवा सुश्रूषा करते है। वहां रोगी जीव-जन्तु की चिकित्सा की जाती है और प्रेम और दया हमारा धर्म है।" युवक चुपचाप खडा रहा। उसने कहा-मैं तेरा वह विहार देखूगा। वृद्ध ने चलने का आयोजन करके कहा-मेरे साथ आओ। उसके पास और भी कई रोगी और घायल पशु थे। उन सबको उसने उठाया। सैनिक ने कहा- इतना भार तुम नहीं उठा सकते, लाओ यह हरिण मै ले चलू । युवक का स्पर्श पाते ही हरिण छटपटाने लगा। भिक्षु ने कहा-उसे मत छुओ। उसे तुमसे घृणा है।-भिक्षु ने उसे गोद मे ले लिया। वह शिशु की तरह उसकी गोद मे सो गया। दोनो चले । युवक का गर्व भग हुआ। वह सोचता जा रहा था, मैं समझता था पृथ्वी-भर के राजमुकुट मेरे चरणो मे गिरते है, और सभी मेरी प्रतिष्ठा करते और मुझसे भय खाते है । पर यह तुच्छ पशु भी मुझसे घृणा करता है ! इस वृद्ध भिक्षु मे ऐसा क्या गुण है, जो यह मूक प्राणी भी इसपर विश्वास करता,प्रेम करता और आत्मसमर्पण करता है ? हाय ! मै इतना अधम हूं! एक बार उसने रक्त और धूल से भरे अपने वस्त्रो को देखा । एक गम्भीर श्वास ली और नीचा सिर किए साधु के पीछे-पीछे चला। वन- न-प्रदेश के एक घने कुज में वह विहार था। वहां पूर्ण शान्ति और आनन्द का राज्य था। उत्तप्त सूर्य की किरणें उस दुर्भेद्य वृक्ष-राशि को पार नहीं कर सकती