पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/९४

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आचार्य उपगुप्त ! आचार्य उपगुप्त ने अवरद्ध कण्ठ से कहा-देवानां प्रिय सम्राट् की जय हो! परन्तु आचार्य ! सम्राट् का भार मुझपर न डालें! आचार्य तिष्य के रहते और कौन सम्राट् को सन्मार्ग बताएगा? भगवान् तिष्य ने कहा-आचार्य ! आत्मा पर सदैव अज्ञान का आवरण रहता है और इस आवरण का भेदन करने के लिए एक रहस्यविद् की आवश्यकता है। आप ही वह रहस्यविद् हैं । आचार्य ! अपने शिष्य का कल्याण-चिन्तन कीजिए-मेरा कार्य समाप्त हुआ। यह कहकर मोगली-पुत्र तिष्य अन्तर्धान हुए। सम्राट् और उपगुप्त क्षणभर विमूढ़ रहे। अब आचार्य उपगुप्त ने नेत्र उठाकर कहा-चक्रवर्ती, भीतर कुटी में पधारकर कृतार्थ करे। दोनो महान् आत्माएं कुटी में प्रविष्ट हुई। सध्या का समय था। सम्राट् वाटिका में धीरे-धीरे गम्भीर मुख-मुद्रा किए टहल रहे थे । समस्त भारत के चक्रवर्ती सम्राट् के सम्मुख ऐसी गहन समस्या न आई थी। उनका चिन्तनीय विषय था कलिंगराज का दुर्धर्ष अपघात । वे सोच रहे थे, मैंने एक हरे-भरे सुखी राज्य का अकारण विध्वस किया। कलिंगराज न जाने कहां कैसे मारे गए। उनके युवराज बन्दी होकर आ रहे हैं। उनका परिवार न जाने किस दुर्दशा मे है। कैसे मै इस पातक से उऋण होऊंगा। सम्राट् के ज्ञान-चक्षु खुल गए थे और उन्हे महान् दया-धर्म का तत्त्व प्रकट हो गया था। वे सोच रहे थे कि किस प्रकार इस दुष्कर्म का प्रतिशोध किया जाए। हठात् एक दण्डधर ने निकट आकर अभिनन्दन करके कहा-देव, कलिंग- राजकुमार को लेकर महानायक आए है। अशोक ने उत्फुल्ल होकर कहा-उन्हे अभी यहां ले आओ। क्षणभर ही मे कलिंग राजकुमार को लेकर महानायक ने सम्राट् का अभिवादन करके राजकुमार से कहा-कुमार ! सम्राट् का अभिवादन करो। कुमार ने हसकर कहा-महानायक, आपकी आज्ञा की आवश्यकता नहीं। आपके सौजन्य के लिए, जो आपने मार्ग-भर मे मुझपर किया, मैं आभारी हूं। अब मैं, सम्राट के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए, स्वयं सोच-समझ लूगा। आप सम्राट् की आज्ञा लेकर जा सकते हैं।