पृष्ठ:बा और बापू.djvu/१३

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12 वा और बापू जीवन के दुस्तर सागर को कुशल तैराक की तरह पार कर गई। युग-युग पुरानी वात है, सत्ययुग था या त्रेतायुग, जबऋषि- मुनि गृहस्थ होते थे। गृहस्थ-जीवन उनके तप-त्याग के जीवन मे बाधक नही होता था। इस कलिकाल मे वैसा ही तप और त्याग का दाम्पत्य 'बा' ने निर्माण किया। बापू ने लिखा है "हम असाधारण पति-पत्नी थे। 1906 मे एक-दूसरे की रजामदी से और अनजानी आजमाइश के बाद हमने सदा के लिए सयम का व्रत ले लिया था। इससे हमारी गाठ पहले से कहीअधिक मजबूत बनी और मुझे उससे बहुत आनन्द हुआ। हम दो आदमी नही रह गए। मेरी वैसी कोई इच्छा न थी, तो भी उन्होने मुझमे लीन होना पसन्द किया। इससे वे सचमुच ही मेरी अर्धांगिनी बनी। वे हमेशा से बहुत दृढ इच्छा-शक्ति वाली स्त्री थी। अपनी नव-विवाहिता दशा मे मैं उहे भूल से हठीली माता करता था, लेकिन अपनी दृढ इच्छा शक्ति के कारण वे अनजाने ही अहिंसक असहयोग की कला के आचरण मे मेरी गुरु बन गई।"