पृष्ठ:बा और बापू.djvu/१४

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अपरिग्रह की दीक्षा अपरिग्रह एक तप है। यदि वह पति के कारण पत्नी को करना पडे तो और भी कठिन है। सन् 1899 की बात है । बापू जब दक्षिण अफ्रीका से जाने लगे तो वहा के भारतीय मित्रो ने वापू का अनेक मानपत्रो द्वारा स्वागत-सत्कार किया। बहुत-सी कीमती वस्तुए भेंट मे दी। उनमे पचास गिन्नी के मूल्य का एक हार कस्तूरबा के लिए भी था। जिस साझ को ये उपहार मिले, उस रात बापू सो नहीं सके। पागल की तरह रात-भर जागते और वेचनी से अपने कमरे मे चक्कर काटते रहे, लेकिन उलमन नही सुलझी। सैकडो की कीमत के उपहारो को छोड देना बहुत कठिन था, परन्तु उनका रखना उससे भी अधिक कठिन था। उनके मन मे तूफान उठ रहा था, वे सोच रहे थे कि जब मैं यह कहता हू कि सेवा का कोई बदला नही लेना चाहिए तो ये गहने और जवाहरात मैं कैसे रख सकता हू। अन्त में उन्होंने निणय किया कि मुझे ये चीजें कदापि नही रखनी चाहिए। उन्होने तुरन्त उन भेंटो और गहनो का एक ट्रस्टी नियत किया और इसका एक मसविदा तयार करके तब चैन से सोए। परन्तु अभी एक और कठिनाई थी, वे डर रहे थे कि 'बा' को समझाकर उनसे हार वापस लेना कठिन होगा। बच्ने कदा- चित् राजी हो जाए।