बापू की रसोई 35 बापू सुनकर उस समय तो चुप रहे । दूसरे दिन प्राथना के वाद उन्होंने कहा, "हमारे आश्रम में एक नये कवि पैदा हुए है, हमे उनको कविता सुननी है।" इसके बाद बापू ने उस महिला से वह गरबी गाने का आग्रह किया। महिला ने गरवी गाई । गरवी में आश्रम की रसोई का परिहास था। वापू ने सुनकर कहा, "अच्छी बात है, आपकी फरियाद स्वीकार की जाती है । जिन्हे छौंककर और मसाले डालकर साग खाना हो, वे अपने नाम मुझे लिखा दें।" 'वा' ने कहा, "यो तो आपको कोई नाम नहीं देगा, यह मामला हम लोग स्वय तय कर लेंगी।" बापू ने कहा, "अच्छी बात है, ऐसा हो सही। परन्तु देखना, इसमे बच्चो को सम्मिलित मत कर लेना । बच्चे तो बिना मसाले का साग ही पसन्द करते हैं।" 'बा' ने कहा, "इस तरह कहकर बच्चो को चढाओ और भले उन्हे अपने पास ही रखो, ये बच्चे कहा तक तुम्हारे रहेंगे सो मैं इसके बाद सब बहिनों ने नाम तय किए और मसाला खाने की आजादी पाई । परन्तु बापू सुख से मसाला नही खावे देते थे। खाने के समय बहिनो को पक्ति उनके सामने बैठती। बापू खाते- खाने पूछते, "क्यो, बघार कैसा लगा है ? साग खूब मसालेदार हैन" इसका जवाब देती 'बा', "पहले तुम कौन कम थे। हर इतवार को मुझसे बेढमी और पकोडो या पातरे बनवाकर खूब उडाते थे। सो तुम्ही ये या और कोई ?" जानती है।" }