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बिखरे मोती ]
 



देहली से बाहर निकल गई । बिट्टन और निर्मला दोनों बड़ी देर तक लिपटकर रोती रहीं।

निर्मला ने कहा-“तुम्हारी ही तरह मैं भी बिना घर को हूँ बहिन ! यदि इस घर पर मेरा कुछ भी अधिकार होता तो मैं तुम्हें इस कष्ट के समय कहीं भी न जाने देती क्या करू, विवश हैं। किन्तु तुम मेरा यह पत्र लेकर मेरे भाई ललितमोहन के पास जाओ; वे तुम्हारा सब प्रबन्ध कर देंगे। उनका स्थान तो तुम जानती ही हो; पर रात के समय पैदल जाना ठीक नहीं । यह रुपया लो; तांगा कर लेना । ईश्वर पर विश्वास रखना बहिन! जिसका कोई नहीं होता, उसका साथ परमात्मा देता है।

निर्मला ने, दस रुपये बिट्टन को दिए; वह पत्र लेकर चली गई। निर्मला घर में आई; एक चटाई डाल कर बाहर बरामदे में ही पड़ी रही। सवेरे उसकी आँख उस समय खुली जब रमाकान्त उठ चुके थे और उनकी मां नहा कर पूजा करने की तैयारी कर रही थीं ।

निर्मला नित्य की तरह उठ कर घर का सब काम करने लगी; जैसे शाम की घटना का उसे कुछ याद ही न हो। यदि वह मार खाने के बाद कुछ अधिक बकझक करती

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