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बिखरे मोती]
 


घर में रात दिन बंद रहने की उसकी आदत न थी । बाहर जाने के लिए उसका जी सदा. व्याकुल रहता । यदि कभी खिलौने वालों की आवाज सुनती या “चनाजोर गरम" की आवाज़ उसके कान में पड़ती तव वह तड़प-सी जाती । अपना यह कैदखाने का जीवन उसे बड़ा ही कष्ट- कर मालूम पड़ता है किन्तु सोना चहुत दिनों तक अपने को न रोक सकी। वह सास और पति की आंँख वचा कर गृह-कार्य के पश्चात् कभी खिड़की, कभी दरवाजे के पास, जव जैसा मौका मिलता जाकर खड़ी हो जाती; बाहर का दृश्य, हरे-हरे पेड़ और पत्तियां देखकर उसे कुछ शान्ति मिलती। बाहर ठंडी हवा को स्पर्श करके उसमें जैसे कुछ जीवन आ जाता । वह जानती थी कि खिड़की, या दरवाजे के पास वह कभी किसी बुरे उद्देश्य से नहीं जाती, फिर भी पति नाराज होंगे, सास झिड़कियां लगायेंगी; इसलिए वह सदा उनकी नज़र बचा कर ही यह काम करती । मुहल्ले वालों को यह बात सहन ने हुई। कल की आई हुई वहू, बड़े घर की बहू, सदा खिड़की-दरवाज़ों से लगी रहे। अवश्य ही यह आचरण- भ्रष्ट है । धीरे-धीरे आस-पास के लोगों में सोना के आचरण की चर्चा होने लगी। पुराने विचार वाले,

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