वह अपने को संसाररूप तरणी की बल्ली जानती हैं। किन्तु नवीन जिस प्रकार दोषी स्वामी के प्रति आरक्त नयन से सदा दृष्टि करती थी, हम उस प्रकार करने का किसी सुन्दरी को परामर्श नहीं देते। वरञ्च मिष्ट वाक्य और सप्रेम व्यवहार से स्वामी को सन्तुष्ट करें, और पीछे स्वामी के असद व्यवहार से आप दुःखित होकर दुःख के सहित कोमल नयन युगल वाष्पवारिपरिपूर्ण करके स्वामी को भर्त्सना करें, तब देखें कि स्वामी सुपथ में आता है वया नहीं?
इसी कारण से गङ्गाधर नवीन को दर्शन नहीं देता था, इससे नवीन का और भी अनिष्ट होने लगा। गंगाधर विरजा पर आशत हुआ। बिरजा का सहास्य वदन, बिरजा के मधुर वाक्य, बिरजा के अनुराग का भाव, वह सदाही ध्यान किया करता था। बिरजा प्रथम यह नहीं जान सकी अन्त में गंगाधर का भावर्वलक्षण्य पाया। पर नवीन से नहीं कहा। कहने से कदाचित् नवीन के संग विच्छेद होता यही समझकर नहीं कहा। नवीन का बिरजा पर अविचलित विश्वास और प्रेम था इसलिये उसको भी उसका सन्देह नहीं हुआ। बिरजा ने और भी विचारा कि यदि यह बात नवीन से कहूँगी तो वह गंगाधर के प्रति हतप्रभ हो जायगी। बिरजा ने नवीन को स्वामी