पृष्ठ:बिरजा.djvu/४४

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से रात्रि के संयोग में नवीनमणि को मार डाला। मैं उसी रात्रि को वहां से भाग आई। वह हतभाग कुछ दिन पीछे घर से निरुद्देश हो गया, और "पागल" की भांति देश देश में घूमता रहा, परिशेष में वह कलकत्ते को अन्यान्य रोगियों के आश्रय में सब के सामने अपना पाप स्वीकार करके इस संसार से अपसृत हो गया। मैंने अपने आश्रयदाता शिवनाथ बाबू के मुंह से यह सब सुनकर भवतारिणी जीजी को चिट्ठी लिखी, उस घर में मैं अब इस जन्म में मुंह नहीं दिखा सकी हूँ। यदि मैं उस घर में आश्रय ग्रहण न करती तो नवीनमणि इतने दिन स्वामिसौभाग्य से उस संसार की शोभावर्ध्दन करती और वर्षीय सी गृहिणी भी पुत्रशोक से प्राण विसर्जन न करती जब मैंने देखा था कि इस हतभाग्य के हृदय में कामाग्नि बलती है तब मैं न जाने किस लिये उस घर से स्थानान्तर में न चली गई? मैे उस गंभीर रात्रि में पथचारिणी हुई थी, यदि कुछ दिन पहिले ऐसा करती तो आज तुम्हारे आगे अंनुशोचना न करनी पड़ती।

इस समय बिरजा के हृदय का भार अत्यन्त लघु हो गया था। वह मुख खोल कर रोने लगी इतने काल विपिनबिहारी भी प्राय: नीरवही रह आये थे। इस समय उन्होंने प्रकृत पुरुष के समान खड़े होकर रोरुद्यमाना