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पृष्ठ:बिरहवारीश माधवानलकामकंदला.djvu/१६१

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विरहवारीशमाधवानलकामकंदलाचरित्रभाषा। १३३ उझकत झझकत कहीनहिं मानत । बरबट मान तमाशोगनत।। छुटी जात नहिं बसन सम्हारत । टुटीप्रीति मुखते उच्चारत ॥ कटिभुग गहितियको दिजबँचहि।भूषणबसन कामनीमैचहि।। गाय उठी अति रूठी बाला। ज्यों माधोनल दौदि खुसाला ।। कहीन बाल बालम की मानी। चली रूस अतिही खिसियानी॥ तब द्विज माधो बीणा लीना। चल्यो रिसाय हिये रसभीना॥ जय श्रीराम विप्र उच्चारी । कृपाकरत रहिये सुन प्यारी । सुनके बाल मंद मुसुक्यानी । डगरचल्यो माधो दिज ज्ञानी॥ झपटबाल बहियां गहि लीन्ही । बूझीकितको यात्रा कीन्ही॥ अब यह गुसामाफ करदीजै। चलिये बहुरि श्रमायस कीजै ॥ माधो अतिहि रूस मनकीन्हा । तब तिहि बाल अंक भरलीन्हा।। लपटत झुकत सेजपर आये | दुहुँन २ को नयन चुराये ॥ कामकंदला अति पछितानी । भलै मान प्रकृति मेंठानी ॥ मनमिलाय पुनि बिरहन लागे। प्रेम प्रवाह दुनो हियजागे॥ तिहि अवसर गुलजारतमोली । कहि पठई माधो सों बोली ।। पायो राज कंदला नारी । कहहु याद को करे हमारी॥ जबसुतके घर आवत नारी । बिष समान सूझत महतारी॥ यार लोग किहि लेख माहीं। माधो अनुचित कीन्हो नाहीं॥ सुनके माधो अति सकुचाना । आयो मिलन मित्र अस्थाना।। सकुचत मिल्यो अतिहि सुखपाई। अपनी सबबारता सुनाई। मित्र सहित निज घरको आयो । यहै प्रसंग कंदला पायो। मिल्यो प्रबीन तमोलीकाहीं। बूझो दुवो कुशल दुइपाहीं । दो० कामकंदला माधवा वरईसुवा प्रवीन । मिले क्षेमयुत सुखबढ्यो छिन २ अतिरस लीन॥ इतिश्रीमाधवानलकामकंदलाचरित्रभाषाविरहीसुभानसम्बादे श्रृंगारखंडेपच्चीसवांतरंगः॥