रहते थे। दो-तीन गायें पाल रक्खी थीं। स्त्री 'शिखरिदशना' थीं यानी सामने के दो दांत आवश्यकता से अधिक बड़े थे। होठों से कोशिश करने पर भी न बन्द होते थे। पैकू के सुकुल। कनवजियापन में बिल्लेसुर से बहुत बड़े। फलतः बिल्लेसुर को यहाँ सब तरह अपनी रक्षा देख पड़ी।
बिल्लेसुर सत्तीदीन के यहाँ रहने लगे। ऐसी हालत में ग़रीब की तहज़ीब जैसी, दबे पाँव, पेट खिलाये, रीड़ झुकाये, आँखें नीची किये आते जाते रहे। उठते जोबन में सत्तीदीन की स्त्री को एक सुहलानेवाला मिला। दो-तीन दिन तक भोजन न खला। एक दिन औरत वाले कोठे जी गया। नक्की सुरों में बोलीं, "मैं कहती हूँ, बिल्लेसुर, तुम तो आ ही गये हो, और अभी हो ही, इस चरवाहे को विदा क्यों न कर दूँ? हराम का पैसा खाता है। कोई काम है? घास खड़ी है, दो बोझ काट लानी है; नहीं, पैरे की बँधी मूठें हैं––यहाँ वहाँ का जैसा धान का पैरा नहीं––बड़ा बड़ा कतर देता है और थोड़ी सी सानी कर देनी है; देश में जैसे डंडा लिये यहाँ ढोरों के पीछे नहीं पड़ा रहना पड़ता, लम्बी लम्बी रस्सियाँ हैं, तीन गायें है, घास खड़ी है, बस ले गये और खूँटा गाड़कर बाँध दिया, गायें चरती रहीं, शाम को बाबू की तरह टहलते हुए गये और ले आये, दूध दुह लिया रात को मच्छड़ लगते हैं, गीले पैरे का धुवाँ दे दिया; कहने में तो देर भी लगी।' कहकर सत्तीदीन की स्त्री ने कनपटी घुमाई और दोनों होंठ सटाने शुरू किये।
बिल्लेसुर चौकन्ने। ढोर चराने के लिये समन्दर पार नहीं किया। यह काम गाँव में भी था। लेकिन परदेश है। अपना कोई नहीं। दूसरे के सहारे पार लगना है। सोचा,