पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/१८

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सत्तीदीन ने कहा, 'सात सौ कोस इलाहाबाद तक पूरा हो जाता है।' उनकी स्त्री चमकती आँखों से बिल्लेसुर को देखाने लगीं। बिल्लेसुर हार मानकर बोले––'जब किताब में लिखा है तो यही ठीक होगा।'

पति को प्रसन्न देखकर पत्नी ने अर्ज़ी पेश की जिस तरह पहले बड़े आदमियों का मिज़ाज परखा जाता था, फिर बात कही जाती थी। बिल्लेसुर ग़र्ज़मन्द की बावली निगाह सा देखते रहे। सत्तीदीन ने उसमें एक सुधार की जगह निकाली, कहा 'बिल्लेसुर अपने आदमी है इसमें शक नहीं, लेकिन इसमें भी शक नहीं कि उस छोकड़े से ज़्यादा खायेंगे। हम तनख़्वाह न देंगे। दोनों वक़्त खा लें। तनख़्वाह की जगह हम तहसील के जमादार से कह देंगे, वे इन्हें गुमाश्तों के नाम तहसील की चिट्टियाँ देते रहें, ये चार-पाँच घन्टे में लगा आयेंगे, इन्हें चार-पाँच रुपये महीने मिल जाया करेंगे, हमारा काम भी करते रहेंगे।'

सत्तीदीन की स्त्री ने किये उपकार की निगाह से बिल्लेसुर को देखा। बिल्लेसुर ख़ुराक और चार-पाँच का महीना सोचकर अपने धनत्व को दबा रहे थे, इतने से आगे बहुत कुछ करेंगे। सोचते हुए उन्होंने सत्तीदीन की स्त्री से हामी की आँख मिलाई।

जमादार गम्भीर भाव से उठकर हाथ-मुँह धोने लगे।


(३)

बिल्लेसुर जीवन-संग्राम में उतरे। पहले गायों के काम की बहुत-सी बातें न कही गई थीं, वे सामने आईं। गोबर उठाना, जगह साफ़ करना, मूत पर राख छोड़ना, कंडे पाथना, कभी कभी गायों को नहलाना आदि भीतरी बहुत सी बातें थीं। दरअस्ल