पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/३८

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की। बिल्लेसुर समझ गये कि पास ही कहीं है। बढ़ते गये, बढ़ते गये। दूर एक झाड़ी दिखी, निश्चय हुआ कि यहीं कहीं मारा पड़ा होगा। झाड़ी के पास पहुँचे, वहाँ कोई नहीं था। झाड़ी के भीतर गये। अच्छी तरह देखने लगे, ख़ून से तर ज़मीन दिखी। तअज्जुब से देखते रहे। बकरा या आदमी न दिखा। चेहरा उतर गया। दिल रो रहा था, लेकिन आँखों में आँसू न थे। कहीं इन्साफ़ नहीं, सिर्फ़ लोग नसीहत देते हैं। चलकर कुए के पास आये। बहुत गरमा गये थे। जगत पर बैठे। बकरा मार डाला गया। लड़के जानते हैं, लेकिन बतलाते नहीं। आठ रुपये का था। जी रो उठा। कोई मददगार नहीं। ढलते सूरज की धूप सिर पर पड़ रही थी, लेकिन बिल्लेसुर ख़याल में ऐसे डूबे थे कि गरमी पहुँचकर भी न पहुँचती थी।

आज बकरियाँ भूखी हैं। शाम हो आई है, चराने का वक़्त नहीं। लग्गा नहीं; पत्तियाँ नहीं काटीं; रात को भी भूखी रहेंगी। इस तरह कैसे निबाह होगा? बिना खाये सबेरे दूध न होगा। बच्चे भूखे रहेंगे। दुबले पड़ जायँगे। बीमारी भी जकड़ सकती है। चोकर रक्खा है, लेकिन उतनी बकरियों और बच्चों को क्या होगा? रात को पेड़ छाँटना पड़ेगा।

सूरज डूब गया। बिल्लेसुर की आँखों में शाम की उदासी छा गई। दिशाएँ हवा के साथ सायं-सायं करने लगीं। नाला बहा जा रहा था जैसे मौत का पैग़ाम हो। लोग खेत जोतकर धीरे-धीरे लौट रहे थे, जैसे घर की दाढ़ के नीचे दबकर, पिसकर मरने के लिए। चिड़ियाँ चहक रही थीं, रात को घोंसले की डाल पर बैठी हुई, रो-रोकर साफ़ कह रही थीं, रात को घोंसले में जंगली बिल्ले