पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३१
 

से हमें कौन बचायेगा? हवा चलती हुई इशारे से कह रही थी, सब कुछ इसी तरह बह जाता है।

बिल्लेसुर डंडा लिये धीरे-धीरे गाँव की ओर चले। ढाढस अपने आप बँध रहा था। दूसरे काम के लिए दिल में ताक़त पैदा हो रही थी। भरोसा बढ़ रहा था। गाँव के किनारे आये। महावीर जी का वह मन्दिर दिखा। अँधेरा हो गया था। सामने से मन्दिर के चबूतरे पर चढ़े। चबूतरे-चबूतरे मन्दिर की उल्टी प्रदक्षिणा करके, पीछे महावीर जी के पास गये। लापरवाही से सामने खड़े हो गये और आवेग में भरकर कहने लगे––"देख, मैं ग़रीब हूँ। तुझे सब लोग ग़रीबों का सहायक कहते हैं, मैं इसीलिए तेरे पास आता था, और कहता था, मेरी बकरियों को और बच्चों को देखे रहना। क्या तूने रखवाली की, बता, लिये थूथन-सा मुँह खड़ा है?" कोई उत्तर नहीं मिला। बिल्लेसुर ने आँखों से आँखें मिलाये हुए महावीर जी के मुँह पर वह डंडा दिया कि मिट्टी का मुँह गिली की तरह टूटकर बीघे भर के फ़ासले पर जा गिरा।


(१०)

बिल्लेसुर, जैसा लिख चुके हैं, दुख का मुँह देखते-देखते उसकी डरावनी सूरत को बार-बार चुनौती दे चुके थे। कभी हार नहीं खाई। आजकल शहरों में महात्मा गान्धी के बकरी का दूध पीने के कारण, दूध बकरी की बड़ी खपत है, इसलिए गाय के दूध से उसका भाव भी तेज़ है; मुमकिन, देहात में भी यह प्रचलन बढ़ा हो; पर बिल्लेसुर के समय सारा संसार बकरी के दूध से घृणा करता था; जो बहुत बीमार पड़ते थे, जिनके लिये गाय का दूध भी मना था, उन्हें बकरी के दूध की व्यवस्था दी जाती थी। बिल्लेसुर के