पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/४०

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गाँव में ऐसा एक भी मरीज़ नहीं आया। जब दूध बेचा नहीं बिका, किसी को कृपापात्र बनवाये रहने के लिए व्यवहार में देने पर मुँह बनाने लगा, तब बिल्लेसुर ने खोया बनाना शुरू किया। बकरी के दूध का खोया बनाने में पहले प्रकृति बाधक हुई; बकरी के दूध में पानी का हिस्सा बहुत रहता है; बड़ी लकड़ी लगानी पड़ी; बड़ी देर तक चूल्हे के किनारे बैठ रहना पड़ा; बड़ी मिहनत; पहाड़ खोदने के बाद जब चुहिया निकली––खोये का छोटा-सा गोला बना, तब मन भी छोटा पड़ गया। भैंस के दूध के सेर भर में पाव भर का आधा भी नहीं होता था। धीरज बाँधकर बेचने गये, भजना हलवाई जोतपुरवाले के यहाँ, वह गट्टे काट रहा था, जल्दी में उसने देखा नहीं, तोलकर दाम दे दिये; दूसरे दिन गये तो तोलकर रख लिया। बिल्लेसुर ने पूछा, "दाम?" उसने कहा, "दाम कल दे चुका हूँ, मैं समझा था भैंस का खोया है, यह बकरी का खोया है, बकरी के खोये के आधे दाम भी बहुत हैं, मैं बकरी का खोया नहीं लेता, अब न ले आना, सारी मिठाई बरबाद हो जाती है, गाहक गाली देते हैं; न घी है, न स्वाद; जो कुछ थोड़ा-सा घी निकलता है, वह दूसरे घी में मिलाया नहीं जा सकता––कुल घी बदबू छोड़ने लगता है।" बिल्लेसुर सर झुकाकर चुपचाप चले आये। माल है, पर बिकता नहीं। तब तरकीब निकाली। इसमें खोया बनाने से कम मिहनत पड़ती है। कन्डे की आग परचाकर हन्डी में दूध रख देने लगे, अपना काम भी करते थे, दूध गर्म हो जाने पर ठंढा करके जमा देते थे, दूसरे दिन मथकर मक्खन निकाल लेते थे। मट्ठा खुद भी पीते थे, बच्चों को भी पिलाते थे। मक्खन का घी बनाकर उसमें चौथाई हिस्सा भैंस का घी ख़रीदकर मिला देते थे, और छटाक आधपाव