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पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/४४

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बिल्लेसुर ने कहा, "माँ-बाप ही दुनिया के देवता हैं। धर्म तो रहा ही न होता अगर माँ-बाप न रहे होते।"

त्रिलोचन ने कहा, "वेशक! धर्म की रक्षा हर एक को करनी चाहिये। तभी तो धर्म के पीछे जान दे देने के लिये कहा है।"

"अब देखो, खेत में काम करने गये, घर आये, औरत नहीं; बिना औरत के भोजन विधि-समेत नहीं पकता, न जल्दी में नहाते बनता है, न रोटी बनाते, न खाते; धर्म कहाँ रहा?" बिल्लेसुर उत्तेजित होकर बोले।

"हम तो बहुत पहले समझ चुके थे, अब तुम्हीं समझो।" कहकर त्रिलोचन ने तीसरी आँख पर मन को चढ़ाया।

बिल्लेसुर ने एक दफ़ा त्रिलोचन को देखा, फिर सोचने लगे, "देखो, दलाल बनकर आया है। सोचता है, दुनिया में हम ही चालाक है। अभी रुपए का सवाल पेश करेगा। पता नहीं, किसकी लड़की है, कौन है? ज़रूर कुछ दाग होगा। अड़चन यह है कि निबाह नहीं होता। भूख लगती है, इसलिए खाना पड़ता है। पानी बरसता है, धूप होती है, लू चलती है इसलिये मकान में रहना पड़ता है। मकान की रखवाली के लिए ब्याह करना पड़ता है। मकान का काम स्त्री ही आकर सँभालती है। लोग तरह-तरह की चीज़-वस्तुओं से घर भर देते हैं; स्त्री को ज़ेवर गहने बनवाते हैं। यों सब झोल है––ढोल में सब पोल ही पोल तो है?" बिल्लेसुर को गुरुआइन की याद आई, गाँव के घर-घर का सुना इतिहास आँख के सामने घूम गया। अब तक वे झूठ कहते रहे। यही कारण है कि बुलबुल काँपे में फँसता है। त्रिलोचन के ज्ञान में रहने की प्रतिक्रिया बिल्लेसुर में हुई। फिर यह सोचकर