पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/५२

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लगे, मन्नी की सास पीने लगीं। पीकर कहा, "बच्चा, मैं बकरी का दूध ही पीती हूँ। इससे बड़ा फ़ायदा है, कुल रोगों की जड़ मर जाती है।"

शाम हो रही थी। आसमान साफ़ था। इमली के पेड़ पर चिड़ियाँ चहक रही थीं। बिल्लेसुर ने आसमान की ओर देखा, और कहा, "अभी समय है। अम्मा, तुम बैठो। मैं अभी आता हूँ। बकरियों को देखे रहना, नहीं, भीतर से दरवाज़ा बन्द कर लो। आकर खोलवा लूँगा। यहाँ अम्मा, बकरियों के चोर बड़े लागन है।" बिल्लेसुर बाहर निकले। मन्नी की सास ने दरवाज़ा बन्द कर लिया।

सीधे खेत-खेत होकर रामगुलाम काछी की बाड़ी में पहुँचे। तब तक रामगुलाम बाड़ी में थे। बिल्लेसुर ने पूछा, "क्या है?" रामगुलाम ने कहा, "भाँटे हैं, करेले हैं, क्या चाहिये?" बिल्लेसुर ने कहा, "सेरभर भाँटा दे दो। मुलायम मुलायम देना।" रामगुलाम भाँटे उतारने लगा। बिल्लेसुर खड़े बैंगन के पेड़ों की हरियाली देखते रहे। एक-एक पेड़ ऐंठा खड़ा कह रहा था, "दुनिया में हम अपना सानी नहीं रखते।" रामगुलाम ने भाँटे उतारकर, तोलकर, मालवाला पलड़ा काफ़ी झुका दिखाते हुए, बिल्लेसुर के अँगोछे में डाल दिये। बिल्लेसुर ने पहले अँगोछे में गाँठ मारी, फिर टेंट से एक पैसा निकालकर हाथ बढ़ाये खड़े हुए रामगुलाम को दिया। रामगुलाम ने कहा, "एक और लाओ।" बिल्लेसुर मुस्कराकर बोले, "क्या गाँववालों से भी बाज़ार का भाव लोगे?" रामगुलाम ने कहा, "कौन रोज़ अँगोछा बढ़ाये रहते हो? आज मन चला होगा या कोई नातेदार आया होगा।" बिल्लेसुर ने कहा, "अच्छी बात है, कल