पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/५३

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ले लेना। इस वक्त नहीं है।" बिल्लेसुर की तरकारी खाने की इच्छा होती थी तो चने भिगो देते थे, फिर तेल मसाले में तलकर रसदार बना लेते थे। लौटते हुए मुरली कहार से कहा, "कल पहर भर दिन चढ़ते हमें दो सेर सिंघाड़े दे जाना।" फिर घर आकर दरवाज़ा खोलवाया। दीया जलाकर बकरियों को दुहा। सबेरे की काटी पत्तियाँ डाली और रसोई में रोटी बनाने गये। रोटी, दाल, भात, बैंगन की भाजी, आम का अचार, बकरी का गर्म दूध और शकर परोसकर फटा डालकर पानी रखकर सास जी से कहा, "अम्मा, चलो, भोजन कर लो।" मन्नी की सास शरमाई हुई उठीं; हाथ-पैर धोकर चौके में जाकर प्रेम से भोजन करने लगीं। खाते-खाते पूछा, "भैंस तो तुम्हारे है नहीं, लेकिन घी भैंस का पड़ा जान पड़ता है।" बिल्लेसुर ने कहा, "गृहस्थी में भैंस का घी रखना ही पड़ता है, कोई आया-गया, अपने काम में बकरी का घी ही लाता हूँ।" मन्नी की सास ने छककर भोजन किया, हाथ-मुँह धोकर खटोले पर बैठीं। बिल्लेसुर ने इलायची, मसाले से निकालकर दी। फिर स्वयं भोजन करने गये। बहुत दिनों बाद तृप्ति से भोजन करके पड़ोस से एक चारपाई माँग लाये; डालकर खटोले का टाट उठाकर अपनी चारपाई पर डाला और मन्नी की सास के लिये बंगाल से लाई रंगीन दरी बिछा दी, वहीं का गुरुआइन की पुरानी धोतियों का लपेटकर सीया तकिया लगा दिया। सास जी लेटीं। आँखें मूदकर बिल्लेसुर की बकरियों की बात सोचने लगीं। जब बिल्लेसुर काछी के यहाँ गये थे, उन्होंने एक-एक बकरी को अच्छी तरह देखा था। गिनकर आश्चर्य प्रकट किया था। इतनी बकरियों और बच्चों से तीन भैंस पालने के इतना मुनाफ़ा हो सकता है, कुछ ज़्यादा ही होगा।