पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/५४

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बिल्लेसुर धैर्य के प्रतीक थे। मन में उठने पर भी उन्होंने विवाह की बातचीत के लिये कोई इशारा भी नहीं किया। सोचा, "आज थकी हैं, आराम कर लें, कल अपने आप बातचीत छेड़ेंगी, नहीं तो यहाँ सिर्फ़ मुँह दिखाने थोड़े ही आई हैं?"

बिल्लेसुर पड़े थे। एकाएक सुना, खटोले से सिसकियाँ आ रही हैं। सांस रोककर पड़े सुनते रहे। सिसकियाँ धीरे-धीरे गुँजने लगीं, फिर रोने की साफ़ आवाज़ उठने लगी। बिल्लेसुर के देवता कूच कर गये कि खा-पीकर यह काम करके रोना कैसा? जी धक से हुआ कि विवाह नहीं लगा, इसकी यह अग्रसूचना है। घबराकर पूछा, "क्यों अम्मा, रोती क्यों हो?" मन्नी की सास ने रोते हुए कहा, "न जाने किस देश में मेरी बिटिया को ले गये! जब से गये, एक चिट्ठी भी न दी।"

बिल्लेसुर ने समझाया, "अम्मा, रोओ नहीं। भाभी बड़े मज़े में हैं। मन्नी भय्या उनकी बड़ी सेवा करते हैं। मैं जहाँ गया था, मन्नी वहाँ से दूर हैं। हाल मिलते थे। लोग कहते थे अच्छी नौकरी लग गई है। उनका सारा मन भाभी पर लगा है। अब भाभी उतनी ही बड़ी नहीं हैं। लोग कहते थे, बिल्लेसुर अब दो-तीन साल में तुम्हारे भतीजा होगा।

"राम करे, सुख से रहें। हमको तो धोखा दे गये बच्चे! हमारे और कौन था? जिस तरह दिन कटते हैं, हमारी आत्मा जानती है।" कहकर मन्नी की सास ने अघाकर साँस छोड़ी।

बिल्लेसुर ने कहा, "जैसे मन्नी, वैसे मैं। तुम यहाँ रहो। खाने की यहाँ कोई तकलीफ़ नहीं। मुझे भी बनी बनाई दो रोटियाँ मिल जायँगी।"