पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/५७

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कुछ चोर खोद ले गये। अभी बौंड़ी पीली नहीं पड़ी थी। नुक़सान होता देखकर मन्नी की सास ने कुछ शकरकन्द खोद लाने की सलाह दी। बिल्लेसुर ने वैसा ही किया। उन्होंने घर में ढेर लगाकर देखा, इतनी शकरकन्द हुई है कि साग घर भर गया है। एक-एक शकरकन्द जैसे लोढ़ा, मन्नी की सास ने मुस्कराते हुए कहा, "इससे तुम्हारा ब्याह भी हो जायगा और काफ़ी शकरकन्द भी खाने को बच रहेगी।" शकरकन्दों को विश्वास की दृष्टि से देखते हुए बिल्लेसुर ने कहा, "अम्मा, सब तुम्हारा आसिरवाद, नहीं तो मैं किस लायक हूँ?" सास ने साँस छोड़कर कहा, "मेरा बच्चा जीता होता तो अब तक तुम्हारे इतना हुआ होता। खेती-किसानी करता; मैं मारीमारी न फिरती।" बिल्लेसुर ने उन्हें धीरज दिया, कहा, "हमी तुम्हारे लड़के हैं। तुम कैसी भी चिन्ता न करो, मेरी जब तक साँस चलती है, मैं तुम्हारी सेवा करूँगा। जी न छोटा करो।" सास ने आँचल से आँसू पोंछे। बिल्लेसुर दूसरे गाँव की तरफ़ शकरकन्दों का ख़रीदार लगाने चले। सोचा, बकरियों के लिये लौटकर पत्ते काटूँगा। दूसरे दिन ख़रीदार आया और ७०) की बिल्लेसुर ने शकरकन्द बेची। सारे गाँव में तहलक़ा मच गया। लोग सिहाने लगे। अगले साल सबने शकरकन्द लगाने की ठानी।


(१५)

कातिक की चाँदनी छिटक रही थी। गुलाबी जाड़ा पड़ रहा था। सवन-जाति की चिड़ियाँ कहीं से उड़कर जाड़े भर इमली की फुनगी पर बसेरा लेने लगी थीं; उनका कलरव उठ रहा था। बिल्लेसुर रात को चबूतरे की बुर्जी पर बैठें देखते थे, पहले शाम को आसमान में हिरनी-हिरन जहाँ दिखते थे अब वहाँ नहीं हैं। बिल्लेसुर