पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५६
 

उठीं। नज़र हण्डी पर थी। बिल्लेसुर ने गर्व से हण्डी रख दी और सास जी के पैर छुए। सासजीने कुशल पूछी जैसे एक मुद्दत के बाद मुलाक़ात हुई हो; फिर बिछी चारपाई पर ले चलकर बैठाया और ग़ौर से बिल्लेसुर की ब्याहवाली उतावली की आँख देखती रहीं।

कुछ देर तक बिल्लेसुर बैठे गम्भीर होते रहे; फिर आवाज़ में भारीपन लाकर भले, गृहस्थ की तरह पूछा, "ब्याह बिचरवा तो लिया गया होगा?"

सासजी के समन्दर पर जैसे तूफ़ान आ गया। उद्वेल होकर तारीफ़ करने लगीं; किस तरह पण्डित के यहाँ गईं,––पण्डित ने विचारा,––आँखें चढ़ाकर कहा,––'साक्षात् लक्ष्मी है, घर पर पैर रखते ही घर भर देगी,'––विवाह बहुत बनता है, लड़की वैश्य वर्ण है और देव गण,––बिल्लेसुर से कोई बैर नहीं पड़ता। साथ ही यह भी कहा कि कुल में ऊँचे हैं, इसलिये बिल्लेसुर यहाँ अपने को छंगे के नहीं तो दुर्गादासवाले ज़रूर कहें, नहीं तो उनकी तौहीन होगी।

बिल्लेसुर की बाछें खिल गईं। विनम्र भाव से कहा, माँ-बाप का कहना सभी मानते हैं, जैसी आज्ञा होगी, कहने में मुझे ऐतराज़ न होगा।

सासजी ने तृप्ति की साँस छोड़ी। फिर बिल्लेसुर के पास पण्डित बुला लाईं। पण्डित ने शीघ्रबोध के अनुसार बनते हुए ब्याह की प्रशंसा की। बिल्लेसुर श्रद्धापूर्वक मान गये। अगली लगन में ब्याह होना निश्चित हो गया, और सासजी की आज्ञा के अनुसार उन्हीं के यहाँ से ब्याह होने की बात तै रही। शाम को एक लड़की ले आई गई और दीये के उजाले में बिल्लेसुर ने उसे