पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/६५

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देखा। उन्हें विश्वास हो गया कि कहीं कोई कलङ्क नहीं। हाथ-पैर के अलावा उन्होंने उसका मुँह नहीं देखा। उसकी अम्मा से देर तक बातचीत करते रहे। उन्हें ढाढस देकर गाँव की राह ली। रुपये मन्नी की सास को दे आये।


(१७)

बिल्लेसुर गाँव आये जैसे क़िला तोड़ लिया हो। गरदन उठाये घूमने लगे। पहले लोगों ने सोचा, शकरकन्दवाली मोटाई है। बाद को राज़ खुला। त्रिलोचन दाँत-काटी-रोटीवाले मित्र से मिले। वहीं मालूम हुआ कि यह वही लड़की है, जिससे वह गाँठ जोड़ना चाहते थे। गाँव के रँडुओं और बिल्लेसुर से ज़्यादा उम्रवाले क्वारों पर ब्याह का जैसे पाला पड़ा। त्रिलोचन ने बिल्लेसुर के ख़िलाफ़ जली-कटी सुनाते हुए गरमी पहुँचाई; कहा, "ब्राह्मण है!––बाप का पता नहीं। किसी भलेमानस को पानी पिलाने लायक़ न रहेगा।" लोगों को दिलजमई हुई।

गाँव के बाजदार डोम और परजा बिल्लेसुर को आ-आकर घेरने लगे। खुशामद की चार बातें सुनाते हुए कि घर की सूरत बदली, चिराग़ रौशन हुआ, साल भर में बाप-दादे का नाम भी जग जायगा, पहले सूने दरवाज़े से साँस लेकर निकल जाते थे, अब अड़े रहेंगे, कुछ लेकर टलंगे। बिल्लेसुर को ऐसी गुदगुदी होती थी कि झुर्रियों में मुस्करा देते थे। सोचते थे, परजे नाक के बाल बन गये। पतले हाल की परवा न कर चढ़कर ब्याह करने की ठानी; लोग-हँसाई से डरे। परजे ऐसा मौक़ा छोड़कर कहाँ जायँगे, सोचा, इन्हें कुछ लिया-दिया न गया तो रास्ता चलना दूभर कर देंगे, बाप-दादों से बँधी मेड़ कट जायगी। भरोसा हुआ कि ब्याह का ख़र्च निबाह लेंगे।