मातृपूजन के दूसरे दिन बरात चली। कुआ पूजा गया। दूध बिल्लेसुर की एक चाची ने पिलाया। पैर लटकाये देर तक कुएँ की जगत पर अड़ी बैठी रहीं। पूछने पर कहा, "सोने की एक ईंट लेंगे।" बिल्लेसुर समझकर मुस्कराये। गाँववालों ने कहा, "बुरा नहीं कहा, आखिर और किस दिन के लिये जोड़कर रक्खा गई हैं?" बिल्लेसुर ने कहा, "चाची, यहाँ तो निहत्था हूँ। पैर निकालो, लौटकर तुम्हें ईंट ही दूँगा।" चाची ख़ुश हो गईं। गाँववालों के मुँह पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि बिल्लेसुर के सोने की पचासों ईंटें हैं।
बरात निकली। अगवानी, द्वारचार, ब्याह, भात, छोटा-बड़ा आहार, बरतौनी, चतुर्थी, कुल अनुष्ठान पूरे किये गये। वहाँ इन्हीं का इन्तज़ाम था। मान्य कुल मिला कर पाँच। बाक़ी कहार, वाजदार, भैय्याचार। चार दिन के बाद दूल्हन लेकर बिल्लेसुर घर लौटे। फिर अपने धनी होने का राज़ जीते-जी न खुलने दिया।