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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर जटित नीलमनि जगमगति सीक सुहाई नाँक । मनौ अली चंपक-कली बसि रसु लेतु निसाँक ॥ १४३ ॥ क= एक पतला सा, सींक की प्रकृति का नासिका-भूषण विशेष ।। (अवतरण )-नायिका की नासिका तथा साँक की अपूर्व शोभा का वर्णन नायक स्वगत करता है ( अर्थ )-[ आहा !] उसकी सुहाई (चित्त को आकर्षित करने वाली ) नाँक में नीलम जड़ी हुई सीकै [ कैसी ] जगमगा रही है, भानो भ्रमर चंपे की कली पर बैठ कर निःशंक ( इस बात की शंका छोड़ कर कि चंपे की कली पर मेरा बैठना अनुचित है ) रस ले रहा है। भ्रमर चंपे पर नहीं बैठता, परंतु नासा-रूपी चंपे की कली ऐसी मनोहर है कि उस पर मुग्ध कर वह विचार-शून्य हो उसका रस ले रहा है। इस कथन से यह व्यंजित होता है कि नासिका की शोभा विलक्षण तथा सामान्य नियम को भुलवा देने वाली है ॥ फेक कछुक करि पौरि हैं, फिरि, चितई मुसकाइ । आई जावनु लैन, जियें नेहैं चली जमाइ ॥ १४४ ॥ पौरि-घर में घुसने के पहिले द्वार के बाहर अथवा भीतर जो आच्छादित स्थान पड़ता है, उसको पौरी कहते हैं। पर इसका प्रयोग द्वार के अर्थ में भी होता है । इस दोहे में दोनों अर्थ घट सकते हैं ॥जीवन जामन, जमाने वाली वस्तु, खट्टा दही, जो दूध में उसे जमाने के लिये थोड़ा सा डाल दिया जाता है। (अवतरण )–नायक किसी पोसिन की मनमोहिनी चेष्टा पर अनुर होकर स्वगत कहता है ( अर्थ )-[ उसने लौट कर जाते समय ] पौरी पर से कुछ फेर ( व्याज, बहाना ) कर के, फिर कर (घूम कर ),[ मेरी ओर] मुसकिरा कर [ ऐसे भाव से ] देखा [ कि ] आई [ तो वह ] थी जामन लेने के लिये, [ पर मेरे ] हृदय में [ अपना] स्नेह ( १. प्रेम । २. घी ) जमा कर चली ॥ जदपि तेजरीहाल-बल पलको लगी न बार। तौ ग्वैड़ी घर को भयौ पैड़ी कोस हजार ॥ १४५ ॥ | तेज (तेज )—यह फारसी शब्द है, जिसका अर्थ तीक्ष्ण है। इसका प्रयोग शीघ्रगामी के अर्थ में भी होता है॥ तैहाल-यह फ़ारसी शब्द 'रवार' का विकृत रूप है । इसका अर्थ चलने वाला है, पर घोड़े के अर्थ में इसकी योगरूद है ॥ ग्वैौ = घर के आसपास की भूमि की सीमा ॥ ( अवतरण )-नायक परदेश से आया है । ग्राम की सीमा पर पहुँच कर उसको, नायिका से मिलने की उत्सुकता के कारण, वहाँ से घर तक का मार्ग सहस्र कोस का प्रतीत हुआ । उसी का वर्णन वह नायिका से करके अपना प्रेमाधिक्य जताता है-- १. जगमगे (४)। २. मुसुकाइ (४), मुसक्याय ( ५ ) । ३. जावन लेन जो ही चली (४)। ४. हिय (२) । ५. नेहहें ( २, ५) । ६. गई ( २ )।