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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/११०

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बिहारी-रत्नाकर

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न बिहारी-रत्नाकर शब्द के भी यहाँ दो भावार्थ हैं-(१) नयन-पक्ष में मिलने से, असक्त होने से । (२) कोमल पदार्थ के पक्ष में टकराने से, घिसने से । ११८वें अंक के दोहे में भी लगत' शब्द का ऐसा ही प्रयोग है । लगि तक । लागि=लग कर, पास हो कर ॥ ( अवतरण )—पूर्वानुरागिनी नायिका विरह से संतप्त हो कर स्वगत अथवा अंतरंगिनी सखी से कहती है | ( अर्थ )-कौन जाने, [ यहाँ ] क्या होगा ( होने वाला है)। व्रज में बड़ी विलक्षण अग्नि उत्पन्न हुई है, [ जो ] नयन-रूपी कोमल पदार्थों के [ परस्पर ] लगने से मन-रूपी सरोवर में लग जाती है । [यह व्रज तो अब ऐसा हो रहा है कि कोई इसके ] मार्ग तक के पास हो कर न चले ॥ इस दोहे का भाव ११८-संख्यक दोहे से मिलाने के योग्य है ॥ घरु घरु डोलत दीन है, जनु जनु जाचतु जाइ । दियँ लोभ-चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाइ ॥ १५१ ॥ चसमा ( चश्मा )= ऐनक । यह शब्द फारसी भाषा का है। चश्मे कई प्रकार के होते हैं। एक प्रकार का चश्मा ऐसा होता है, जिसके लगा लेने से छोटी वस्तु बड़ी दिखलाई देने लगती है ॥ ( अवतरण )-लोभ की निंदा पर कवि की उक्ति ( अर्थ )--[ लोभी मनुष्य ] घर घर दीन हो कर ( गिड़गिड़ाता हुआ) फिरता है, [ और ] जन जन ( प्रत्येक सामान्य व्यक्ति ) से जा कर याचना करता है ( माँगता है)। [ इस बात का विचार नहीं करता कि जिस मनुष्य से वह याचना करता है, वह याचना करने के योग्य महान् पुरुष है, अथवा पास भी खड़े रहने के अयोग्य लघ्वात्मा व्यक्ति; क्योंकि उसको तो ] लोभ-रूपी चश्मा आँखों पर दिए रहने के कारण लघु [ प्राणी ] भी बड़ा लक्षित होता ( जान पड़ता ) है ॥ लै चुभकी बलि जाति जित जित जल-केलि-अधीर । कीजत केसरि-नीर से तितं तित के सरि-नीर ॥ १५२ । केसरि ( केशर )= कुंकुम ॥ सरि-नीर= सरिता का पानी ॥ ( अवतरण )--जल-केलि करती हुई नायिका को दिखला कर सखी नायक का ध्यान उसकी गुराई पर दिलाती है ( अर्थ )-[ देखो, वह ] जल-केलि में अधीर (चंचलता से जल-केलि करती हुई ) [ नायिका ] जिस जिस ओर चुभकी ( डुबकी ) ले कर चली जाती है, उस उस ओर के नदी के जल [ उसकी पीत चुति की आभा से ] केसर के जल [ केसर घोले हुए जल ) के सदृश कर दिए जाते हैं ( बना दिए जाते हैं ) ॥ । -- --- १. जित तित ( २ )