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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१११

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बिहारी-रत्नाकर

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= विहारी-रत्नाकर छिर के नाह नवोढ़-दृग कर-पिचकी-जल-जोर । रोचन-रंग-लाली भई बिथतिय-लोचन-कोर ॥ १५३ ।। नवोढ़ ( नवोढ़ा )= नई व्याहा हुई ।। कर-पिवको हाथ की पिचकारी, हाथों को मिला कर बनाई हुई पिचकारी ।। जल-जोर= जल-वंग अर्थात् जल की धारा ।। रोवन = गोरोचन ।। बिय = दुसरी ॥ ( अवतरण )—सखा का वचन सखी से ( अर्थ )---[ जल-क्रीड़ा के समय ! नाड ( नाथ अर्थात् नायक ) ने हाथ की पिचकारी की जल-धारा से दृग [ ता] नई व्याहा हुई ! नायिका के छिड़के, [ और ] गोरोचन के रंग की लाली हुई अन्य स्त्री को ऑखा को कारा में ॥ अन्य स्त्री का श्राखाँ मैं लाली ईप तथा रोप से हुई । विलक्षणता यह है कि पानो र का श्राखाँ मैं पढ़ा, शोर लाली ग्रार का ग्राखा में हुई ।। कहा लईने दृग करे, परे लाल बेहाल । कहुँ नुरली, कहूँ पीत पडु, कहूँ मुटु, बनमाल ॥ १५४ ॥ लड़त = लाइले ॥ वेहाल = विहल, देहाध्यास राहत ।। ( अवतरण )---नायक नायिका के कटाक्ष से घायल हो कर तड़प रहा है। उसकी दशा सखी नायिका से कहती है ( अर्थ )--[ ने अपने 1 दृग ! ऐसे 1 लड़ते क्या कर रक्खे हैं [ कि उनके मारे ] लाल बेहाल (वेसुध ) पड़ हो । मुरली कहां, पति पट कहीं [ तथा ! मुकुट [ और ] वनला कहाँ [ पड़े लुटक रहे हैं ] । राधा हरि, हार राधिका बनि आए संकेत । दंपति रात-विपरीत-सुग्घु सहज सुरतहूँ लेत ।। १५५ ॥ संकेत=पाल से स्थिर किया हुया स्थान ।। सहज = प्राकृत, स्वाभाविक ।। ( अवतरण ).दंपति के लोला हाव में विपरीत राते का सुख प्राप्त करने का वर्णन सखी सखी से करता है ( अर्थ )--श्रीराधिकाजी श्रीकृष्णचंद्र का रूप धारण कर के [ और ] श्रीकृष्णचंद्र श्रीराधिकाजी का वेप बना कर संकेत-स्थल में आए है , [ और ] दंपति स्वाभाविक रति से भी विपरीत रात का सुख ले रहे ह ॥ चलत पाइ निगुनी गुनी धनु मनि-मुक्तेिय-माले । भेंट होतं जयसाहि स भागु चाहियतु भाल ॥ १५६ ॥ १. करि ( २, ४, ५ ) । २. कहूं मुरालका पोत पटु ( १ ) । ३. लकुट ( २ ), मुकुट ( ४ )। ४. मुक्ता ( ४ ) । ५. लाल ( १, ४ ) । ६. भएँ ( २ ) । ७. साह ( १ )।