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बिहारी-रत्नाकर


बिहारी-रत्नाकर यह गुप्ता नायिका ऐसी चतुर है कि श्रीकृष्णचंद्र का नाम नहीं लेती, प्रत्युत उनके रूप, चेष्टा इत्यादि से उनका वर्णन करती है, जिससे यह जान पड़े कि वह उनसे पहिले से परिचित नहीं थी तथा वन मैं भी वह उनके साथ देर तक नहीं रही कि उनसे नाम इत्यादि पूछने का अवसर उसे प्राप्त होता ॥ मलिन देह वेई बसन, मलिन बिरह ' रूप । पिय-आगम औरै चेढ़ी नन ओप अनुप ॥ १६३ ॥ ( अवतरण )-आगमिष्यत्पतिका नायिका का वर्णन सखी सखी से करती है कि यद्यपि उसने प्रियतम की प्रवाई का समाचार न मिलने के कारण कोई श्रृंगार इत्यादि नहीं किया है, तथापि, सच्चे प्रेम के कारण, उसके हृदय में उस परम शुभ अवसर के निकट होने को भान हो गया है, जिससे रक़ की गति तीव्र हो जाने के का | ( अर्थ )—मलिन शरीर, उसी वस्त्र (विना बदले हुए वस्त्र), [ तथा ] विरह के मलिन रूप ( अवस्था ) में [ स्थित रहने पर भी ] प्रियतम की अवाई [ होने के कारण उसके ] आनन (मुख ) पर कुछ और ही अनूप प ( चमक ) चढ़ गई है ॥ 6 5 जाने के कारण उसके झानः रॅगराती रातें हियँ प्रियतम लिखी बनाई ।। पाती काती बिरह की छाती रही लगाइ ॥ १६४ ॥ रंगराती= अनुराग से रंगी अर्थात् अनुरागमय ।। राते हिये = अनुरक्त हृदय से । काती= कतरनी ॥ | ( अवतरण )-नायक ने अपने परदेश से शघ्र ही लौटने का समाचार बड़े धैर्य देने वाले शव्द में बना कर लिखा है। उस पत्रिका को नायिका कलेजे से लगा कर दुःख का निवारण करती है। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )–प्रियतम द्वारा अनुरक्त हृदय से [ धैर्य देने वाले शब्दों में 1 बना कर लिखी गई अनुरागमयी पत्रिका [ को, जो कि] विरह की [ काटने वाली ] कतरनी [ है, नायिका ] छाती से लगा कर रही है ( स्थित हुई है ) ॥ लाल, अलौलिक लरिकई लखि लखि सखी सिहाँति ।। आजकाल्हि मैं देखियतु उर उकसह भाति ।। १६५ ।। अलौलिक= अल्हड़ । अलोल अथवा अल्हड़ ऐसी अवस्था को कहते हैं, जिसमें खेलकूद की उमंग भरी रहती है, और दूसरी बातों पर ध्यान नहीं जाता ॥ सिहाँति= सिहाती हैं। किसी व्यक्ति को उत्तम देख कर मन में उसकी प्रशंसा करते हुए स्वयं भी वैसे ही होने की अभिलाषा करने को सिहाना कहते हैं। यह शब्द शत्रु तथा मित्र दोनों के विषय में प्रयुक्त होता है । शत्रु के संबंध से इसका अर्थ ईर्षा करना, और मित्र के संबंध से संतुष्ट होना, है ॥ १. को ( ५ ) । २. बदी (४, ५)।