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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/११६

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बिहारी-रत्नाकर

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विहारी-रत्नाकर ७३ (अवतरण )-ग्रंकुरितौवना नायिका रीर मैं यौवनागमन का वर्शन सखी नायक से करती है ( अर्थ )--हे लाल, [ उसका ] अलैलिक लड़कपन देख देख कर [ और की कौन कहे, उसकी ] सखियाँ [ भी ] लिहाती हैं । अाज ही कल में ( दो ही एक दिन से ) ! उसका] उर ( वक्षस्थल ) [ कुछ ] उकलाही भाँति ( उभरने पर आया हुआ सा ) देखा जाता है। बिलखी डभकॉहैं वखनु तिय लखि, गवनु बराइ ।। पिय गहबरि अाएँ अ रा गर्दै लगाइ ॥ १६६ ॥ वराई'= बचा कर, टाल कर ।। हर आएँ:=भर ग्रान से, सँध जाने से ।। राखी गरें लगाइ= गले से लिपटा कर उसकी रक्षा की, अथवा गले से कुछ देर पिटा रक्खां ।। ( अवतरण )-प्रवत्स्प्रे यसी नायिका की श्रॉखों में आँसू भरा देख कर नारदः का गला भर आया, और उसने गमन रोक कर उसे अपने गले । पिड लियः । सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ उस ] स्त्री के डभकाहे (श्रॉसू-भरे ) दृगी से विलखी ( दुखी ) देख कर प्रियतम ने अपना विदेश ] जाना 27 गले के भर आने से [ उसे समझाने बुझाने में असमर्थ हो कर उसको ] गले से लगा कर रख लिया [ उसके प्राणों की रक्षा की, अथवा उसको कुछ देर गले से लग रक्खा ] ॥ प्रतिबिंबित जयसाहे-दुति दीपति दरपन-धाम । संबु जग जीतन क कखौ काय-व्यूहु मनु काम ॥ १६७ ॥ दरपन-धाभ =शीशमहल ॥ काय-ब्यूटु युद्ध के निमित्त सैनिकों के किसी विशेष शृंखला-बद्ध स्थिति में स्थित होने को व्यूह कहते हैं । इसी का नाम मोरचा भी है । 'काय-व्यूहु' का अर्थ शरीरों का मोरचा होता है । | ( अवतरण )-अमेरगढ़ में राजा जयशाह ने एक शीशमहल बनवाया था, जो अब भी विद्यमान है। उसमें छोटे छोटे शीशे इस प्रकार जड़े हैं कि उनमें बिंब प्रतिबिंब पड़ कर चारों ओर एक मनुष्य के अगणित श्रेणीबद्ध रूप दिखाई देते हैं। उसी का वर्णन तथा राजा जयशाह के सौंदर्य की प्रशंसा कवि इस दोहे मैं करता है-- ( अर्थ )-जयशाह की प्रतिबिंबित द्युति दर्पणधाम में | ऐसी] दीपती है, मानो सब जगत् जीतने के निमित्त कामदेव ने [ माया से अनंत रूप धारण कर के उनका ] काय व्यूह बनाया है ॥ बाल, कहा लाली भई लोइन-कोइनु माँह । लाल, तुम्हारे दृगनु की परी दृगनु मैं छाँह ।। १६८ ॥ १. सिंघ ( ४ ), सिंह ( ५ ) । २. सब जगती जीतन रच्यो ( ५ ) ।