विहारी-रत्नाकर मिलि चंदन-बँदी रही गोरें मुंह, न लखाइ ।
ज्य ज्यौं मद-लाली चदै, त्या त्य उघरति जाइ ॥ १८० ॥ ( अवतरण )--नायिका के मुख की गुराई का तथा मद्य-पान से उसमें लाती आ जाने का वन सखा नायक से करती है, और उसी वर्णन से यह भी व्यंजित कर देती है कि अब उसको नशा हो रा है, अतः अापके चलने का सही उपयुक्र समय है
( अर्थ )-[ उसके | गैरे मुख में चंदन की बेंदी [ऐसी] मिल रही है [कि] लक्षित नहीं होती । ज्यों ज्यों मदिरा-पान की लाली । उसके मुख पर ] चढ़ती जाती है, त्यों त्यों [ वह बँदी ] उधरती ( प्रत्यक्ष होती ) जाती है ॥
> सोरठा ६G मैं समुझ्यौ निरधार, यह जगु काँचो काँच सौ ।
एकै रूपु अपार प्रतिबिंबित लखियतु जहाँ ॥ १८१ ॥ निरधार= निश्चय ॥ अपार= अनंत ॥ ( अवतरण )—यह किसी ब्रह्मज्ञानी अद्वैतवादी का वाक्य स्वगत अथवा किसी सतसंगी से है
( अर्थ )—मैंने [ तो यह ] निर्धार ( सिद्धांत ) समझा है [ कि ]यह कच्चा ( असत्य) जगत् काच के समान है, जहाँ एक ही रूप ( एक ही ईश्वर का रूप ) अपार ( अनंत रूप से ) प्रतिबिंबित भासित होता है [ अर्थात् जगत् में जितने पदार्थ दिखलाई देते हैं, वे सब एक ही ईश्वर के अनंत रूप की आभा मात्र हैं ] ॥
जहाँ जहाँ ठाढ़ी लख्यौ स्याम सुभग-सिरमौरु ।।
बिन हूँ उन छिनु गहि रहतु दृगनु अज वह ठौरु ॥ १८२ ॥ सुभग सिरमौरु= भाग्यवानों का शिरोमणि । यहाँ इसका अर्थ स्वरूपवानों का शिरोमणि है ॥ अजी = अब भी, अर्थात् उनके बहुत दिनों से यहाँ न रहने पर भी ॥ ठौर = स्थान | यह शब्द भाषा में प्रायः स्त्रीलिंग-वत् प्रयुक्त होता है । पर इस दोहे से विदित होता है कि बिहारी इसको पुंलिंग मानते थे । सतसई भर में यह शब्द ४ जगह और शाया है। पर उन चारों जगह इसका प्रयोग ऐसी रीति से हुआ है कि इसका लिंग प्रतीत नहीं होता ।
( अवतरण )--श्रीकृष्णचंद्र के मथुरा चले जाने पर प्रज-वधूटियाँ अएस मैं कहती हैं कि जिन स्थान पर श्यामसुंदर के खड़ा देखा था, उन स्थान मैं उनके संसर्ग से कुछ ऐसी रमणीयता आ गई है, और उन्हें देख कर उनका कुछ ऐसा स्मरण हो आता है कि अब तक वे स्थान, कृष्णचंद्र के वहाँ उपस्थित न रहने पर भी, आँख को ऐसे प्रिय लगते हैं कि क्षण भर हम सब श्यामसुंदर के ध्यान मैं मग्न हो कर उनमें लगी रह जाती हैं| १. मुख ( ४ ) । २. ठार्दै ( २ ), ठायौ ( ४ ), ठाढे ( ५ ) । ३. लखे (५) । ४. बिन उन हूँ ( २ ), विन हूँ पिय (४) ।
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बिहारी-रत्नाकर