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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर ७६ ( अर्थ )-जहाँ जहाँ सुंदर पुरुष के शिरोमणि श्याम ( श्रीकृष्णचंद्र ) को खड़ा देखा था, वह ठौर अब तक उनकी अनुपस्थिति में भी दृगों को क्षण मात्र पकड़ रखता है। रंगी सुरत-हँग, पिय-हियें लगी जगी सब राति । पैंड़ पेंड़ पर ठकि कै, ऍड़-भरी ऍड्राति ॥ १८३ ॥ पैड़ पैड्=पग पग ।। पेंड-भरी = गर्व से भरी हुई ।। पेंड्राति = ऐंठती है, शरीर की ऐंठे से गर्व प्रकट करती है ॥ ( अवतरण )-सुरतांत मैं प्रेमगर्विता नायिका की चेष्टा का वर्णन सखी सखी से करती है ( अर्थ )–प्रियतम के हृदय से लगी रात भर जगी हुई [ यह नायिका ], सुरति-रंग ( संभोग-सुख ) में रँगी ( निमग्न ), पग पग पर ठमक कर, गर्व से भरी हुई, ऐंडाती है । | गर्व उसको इस बात का है कि जो सुख मैंने आज पाया है, वह मेरी सौत को न मिला होगा। वह संभवतः यह भी सोचत होगी कि आज के समागम में मैंने प्रियतम के वशीभूत कर लिया है। | - - लालन, लहि पाएँ दुरै चोरी सौंह करें न । सीस-चढे पनिहा प्रगट कहँ पुकारें नैन ॥ १८४ ॥ सौंह=शपथ ॥ पनिहा ( प्रणिधाः )= गुप्त चर, जो चोरी का पता लगाता है ॥ ( अवतरण )-नायक अन्य स्त्री के यहाँ से सबरे आया है, और झूठी शपथ खा कर अपना अपराध छिपाया चाहता है। पर उसकी आँखें कैंपती हुई तथा लाल देख कर प्रौढ़ा अधीरा खंडिता नायिका कहती है | ( अर्थ )-हे लालन, लख पाने पर ( लक्षित कर लेने पर ) चोरी शपथ खाने से नहीं छिपती ।[ ये तुम्हारे] सिर-चढ़े ( ढीठ) नयन-रूपी पनिहा [तुम्हारी चोरी] पुकार पुकार कर प्रकट ( स्पष्ट ) कह रहे हैं ॥ । तुरत सुरत कैसैं दुरत, मुरत नैन जुरि नीठि। डौंड़ी दै गुन रावरे कहति कनौड़ी डीठि ॥ १८५ ।। डौंड़ी = डुग्गी, ढिंढोरा ॥ कनौड़ी = अपराध से ललित ।। ( अवतरण )-प्रौढ़ा अधीरा खंडिता नायिका की उक्कि नायक से ( अर्थ )—तुरत की की हुई सुरति कैसे छिप सकती है ! [ तुम्हारे ] नयन [ प्रथम तो मेरे नयनों के सामने होते ही नहीं, और यदि होते भी हैं, तो ] बड़ी कठिनता से जुड़ कर ( मेरी आँखों से मिल कर )[ और फिर संकुचित हो कर अपराधियों के नेत्रों की भाँति ] मुड़ जाते हैं (अन्यत्र देखने लगते हैं )[ तुम्हारी ] कनौड़ी दृष्टि तुम्हारे गुण (अवगुण ) ढिंढोरा दे कर कह रही है। १. पाई ( २ )।