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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१३०

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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-अभी तक [ तो पहिले के ] वियोग से कृषित [ तुम दोनों के ] अंगों में सहज ( स्वाभाविक ) रंग [ तक ] नहीं आए हैं । [ फिर भला ] हे ललन, अभी चलने की बात क्या चलाई जाती है ॥ | ---- --- अपनै कर गुहि, आपु हठि हिय पहिराई लाल । नौल सिरी औरै चढ़ी बौलसिरी की माल । २०४ ॥ नौल ( नवल )= नई । सिरी ( श्री )= शोभा । वौलसिरी ( बकुलश्री ) = वकुल वृक्ष की शोभा अर्थात् फूल, मौलापरी ॥ | ( अवतरण )-वन-विहार में नायक ने नायिका को मौलसिरी की माला, अपने हाथ से गुंथ कर, पहनाई है। नायिका के शरीर मैं इसी गर्व से विलक्षण शोभा आ गई है। उसी का वर्णन सखी सखी से करती है ( अर्थ )--अपने हाथ से गूंथ कर हठ-पूर्वक स्वयं ( अपने ही हाथ से ) लाल ने [ नायिका के ] हृदय पर [ यह माला ] पहनाई । [ अतः इस ] मौलसिरी की माला से [ उसके शरीर पर कुछ ] और ही नई शोभा चढ़ गई ( अ गई ) ॥ नायक को हठ इसलिये करना पड़ा कि नायिका उर खुलने की लजा से उसके हाथ से माला पहनना स्वीकृत नहीं करती थीं ॥ नई लगनि, कुल की सकुच विकल भई अकुलाइ । दुहुँ ओर ऐची फिरति, फिरकी लौं दिनु जाइ । २०५॥ | बिकल= बेचैन, अस्थिर । अकुलाइ = उद्विग्न होती है । फिरकी-किसी काठ अथवा मोटे कागज के गोल टुकड़े में दो छेद कर के उनमें डोरा पिरो देते हैं । डोरे को कभी इधर और कभी उधर खींचने से वह टुकड़ा भन्न भन्न शब्द करता हुआ घूमता है । इसी को फिरकी कहते हैं । ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका की दशा सखी सखी से अथवा नायक से कहती है ( अर्थ )-[ नायिका ] नई लगन ( नवीन अनुराग ) [ तथा ] कुल की लज्जा [ इन दोनों ] से विकल हुई अकुलाती ( उद्विग्न, अस्थिर ) है, [ और ] दोनों ओर खिंची हुई फिरती है। [ उसका ] दिन फिरकी की भाँति जाता ( व्यतीत होता ) है ।। 'नई लगनि' तथा 'कुल की सकुच' का साम्य फिरकी की दोनों ओर की डोरी से किया गया है। |: इत हैं उत, उत हैं इतै, छिनु न कहू ठहरोति । जक न परति, चकरी भई, फिरि अधिति फिरि जोति ॥ २०६ ।। जक= कल, स्थिरता । चकरी= चकई । काठ का एक छोटा, चक्राकाते खिलौना, जो डोरा बांध कर १. फिरे (४)। २. ठहराइ ( १ ) । ३. जाइ ( १ )।