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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-नायिका के अनवट की शोभा का वर्णन नायक स्वगत करता है ( अर्थ )-[ इसके पैर का ] अँगूठा पा कर जड़ाव से जड़ा हुआ अनवट [ ऐसा ] शोभित हो रहा है, मानो [ इसके ] ताटंक की युति ने [ सूर्य को ) जीत लिया है, इसलिए ढल कर ( नीचा हो कर ) [ वह ] सूर्य [ इसके ] पैर पर पड़ा है। | ---- --- जंघ जुगल लोइन निरे करे मनौ बिधि मैन । केलि-तरुनु दुखदैन ?, केलि तरुन-सुखदैन ।। २१०।। जुगल =दोन ॥ निरे= निराले, विना किसी अन्य वस्तु के मेल के ॥ केलि-तरुनु= केले के वृक्ष अर्थात् खंभों को ।। तरुन ( तरुण )= युवावस्था का मनुष्य ।। ( अवतरण )-नायिका की मनोहर जाँध की प्रशंसा नायक स्वगत करता है ( अथ )-[ इसके ] दोनों जंघ [ ऐसे सुंदर हैं ] मानो मदन-रूपी ब्रह्मा ने निरे लावण्य [ ही ] किए ( बनाए ) हैं। ये कदली के वृक्षा को तुःख देने वाले, [ एवं ] फेलि ( काम-क्रीड़ा ) में तरुण [ पुरुष ] को सुख देने वाले हैं । कदली के वृक्ष का दुःख देने वाले इसलिये कहा है कि उनकी गुलाई तथा चिकनाई देख कर कदली के खंभ को अपने वैसे न होने का दुःख होता है ॥ रही पकरि पाटी सै रिस भैरे भौंह, चितु, नैन । लखि सपनें तियान-रत, जगतहु लगत हियँन । २११ ॥ तियान-रत = अन्य स्त्री से अनुरक्त ॥ ( अवतरण )-नायिका ने स्वभ मैं अपने पति को अन्य स्त्री से अनुरफ़ देख कर रोष किया है। उसी का वर्णन सखी सखा : *री है ( अर्थ )—वह [ स्त्री ] सपने में [ पति के ] अन्य स्त्री से अनुरक्त देख कर, जागते हुए भी [ उसके ] हृदय से न लगते हुए ( न लग कर ), भौंहों, चित्त [ तथा ] नयनों को रिस से भरे हुए [पर्यंक की एक ओर की ] पाटी पकड़ कर [ नायक की ओर पीठ कर के]रही है ( स्थित है ) ।। किय हाइलु चित-चाइ लगि, बजि पाइल तुव पाइ । पुनि सुनि सुनि मुहँ-मधुरधुनिक्यौं न लालु ललचाइ ॥ २१२ ॥ किय=किया । 'किय’ का प्रयोग कियौ' के अर्थ में ४२-संख्यक दोहे में भी हुआ है । हाइलु = किसी वस्तु की प्राप्ति के निमित्त बड़ी लालसा रखने वाला ।। चित-चाइ लगि =चित्त की उमंग पर अपना प्रभाव डाल कर ॥ बजि पाइल तुध पाइ=पायल ने तेरे पैर मैं बज कर, अर्थात् तेरे पैर के पायल ने अपने बजने से ।। १. को ( ५ )| २. कल ( १ ), कला ( ४ ) । ३. सा रिस ( ४ ), सरस ( ५ ) । ४. भैरै ( १ )।