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बिहारी-रत्नाकर


बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )--नायक ने कहीं नायिका की पायल की ध्वनि सुनी है, जिससे वित्त मैं उमंग उत्पन्न होने के कारण वह बड़ा लालसायुत हो रहा है। सखी उसका यह वृत्तांत बतला कर नायिका से कहती है कि केवल पायल की ध्वनि पर मोहित होने वाला नायक वास्तव में बड़ा गुणग्राही है, अतः वह तेरे मुख की मधुर वाणी सुन कर कैसे न ललचायगा, और तुझसे क्यों न प्रेम करेगा ! अतः तुझको अब उससे बातचीत करनी चाहिए | ( अर्थ )-तेरे पैर की पायल [ ही ] ने बज कर, [ और नायक के ] चित्त के चाव (उत्साह) पर लग कर (प्रभाव डाल कर ), [जब उसको ] हायल ( लालसायुत) कर दिया है, [ ते ] फिर [ तेरे ] मुख की मधुर ध्वनि सुन सुन कर लाल क्यों न ललचायगा ( अर्थात् अवश्य ललचायगा और तुझसे बड़ा प्रेम करेगा ) ॥ लनैं हूँ साहस सहसु, कीर्ने जतन हजारु । लोइन लोइन-सिंधु तन पैर न पावत पारु ।। २१३ ॥ ( अवतरण )—पूर्वानुरागिनी नायिका का वचन सखी से | ( अर्थ ) हज़ार साहस धारण करने पर भी, [ तथा ] हज़ार यत्न करने पर [ भी मेरे ] लोचन [ नायक के ] तन-रूपी लावण्य-समुद्र में पैर कर पार नहीं पाते ॥ यहाँ लोचन को पैराक बनाया है। साहस धारण करना इसलिए कहा है कि जिस प्रकार समुद्र में वैरने वालों के लिए, अनेक जल-जंतु के कारण, बड़ा साहस आवश्यक होता है, उसी प्रकार सवाइन इत्यादि की शंका से नायि का भी बहुत साहस कर के नायक की ओर देखती है । यत्न करना इस कारण कहा है कि जैसे जल-जंतु तथा डूबने से बचने के निमित्त समुद्र मैं पैरने वाल को बडे-बडे यत्न करने पड़ते हैं, वैसे ही नायिका को भी चवाइन की दृष्टि तथा लोकापवाद से बचने के लिये, नायक के देखने के निमित्त, अनेक उपयुक्त उपाय करने पड़ रहे हैं । 'खोइन-सिंधु' का प्रयोग बड़ा समीचीन है. क्योंकि समुद्र का जल भी लवणमय होता है, और शरीर की शोभा भी लावण्य कहलाती है। नायिका का अभिप्राय यह है कि यद्यपि मैं बड़ा साहस कर के और अनेक यत्न से इधर उधर से झाँक साक लगा कर नायक की शोभा दखती हूँ, तथापि भली भाँति देख कर तृप्त नहीं हो पाती ॥ पट की ढिग कत ढाँपियति, सोभित सुभग सुबेष । हद रदछद छवि देति' यह सद रद-छद की रेख ।। २१४ ॥ ढिग = किनारा, छोर । इस शब्द का प्रयोग अब पास के अर्थ में होता है, और इसी अर्थ में बिहारी ने भी प्रायः इसका प्रयोग किया है । पर यहाँ इसका अर्थ छोर ही है । हद-यह अरबी शब्द 'हद्द' को विकृत रूप है । इसका अर्थ सीमा है । 'हद छबि देति' का अर्थ है, हद्द की छवि, अर्थात् परम छवि देती हुई ॥ रदछ = ओठ ॥ रद-छ३ = दाँतों का क्षत अर्थात् घाव ।। १. देखिपत (४), देत इह ( ५ )।