पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१०१
बिहारी-रत्नाकर

________________

विहारी-रत्नाकर | ( अर्थ )-[ तुम्हारे शरीर में ] नई (टटकी लगी हुई ) नख-रेखाएँ शोभित हैं, [ और तुम्हारे ] सब गात आलस्य-युक्त हैं, [ जिसकी लज़ा से तुम्हारे ] ये नेत्र सामने नहीं होते । [ इन सब लक्षणों से तुम्हारा अपराध पूर्णतया निर्धारित हो रहा है। उसके छिपाने के निमित्त ] तुम [ झूठी ] स ( शपथे ) क्यों खा रहे हो [ कि हम अन्य स्त्री के यहाँ नहीं गए थे ] ॥ हरि, कीजति बिनती यहै तुम सौं बार हजार ।। जिहँ तिहिँ भाँति डखौ रह्यौ पर रहौं दरबार ॥ २४१ ।। ( अवतरण )-सेवा तथा दर्शन-सुख के अभिलाषी भक़ की प्रार्थना श्रीटंदावन-विहारी से ( अर्थ )-हे हरि, तुमसे हज़ार बार यही विनती (नम्रत-पूर्वक प्रार्थना ) की जाती है [ कि मैं तुम्हारे ] दरवार (राजसभा) में जिस प्रकार हो सके, उसी प्रकार ( अच्छी अथवा बुरी जिस दशा में संभव हो, उसी में ) डला हुआ ( लुढ़कता पुढ़कता ) पड़ा रहूँ [ भावार्थ यह है कि मैं तुम्हारे दरबार से निकाल दिया जाना नहीं चाहता, अर्थात् मुक्ति नहीं चाहता, प्रत्युत तुम्हारी सेवा में, चाहे जिस दशा में हो, रहना चाहता हूँ ] ॥ | भक़ि-मार्ग के अनुयायी वैष्णव मुक्किं कदापि नहीं चाहते। उनका सिद्धांत यह है कि मुकि मैं रक्खा ही क्या है ? जो कुछ आनंद है, वह तो युगल-स्वरूप के दर्शन तथा सेवा में है । मुक्ति हो जाने पर तो अपनपा ही जाता रहता है, अतः सेवा तथा दर्शन का आनंद नहीं प्राप्त हो सकता ॥ भौंह उँचै, आँचरु उलटि, मौरि' मोरि , मुहु मोरि । नीठि नीठि भीतर गई, दीठि दीठि सौं जोरि ।। २४२ ।। मौरि ( मौलि ) = शिर ॥ मोरि–प्रथम मोरि' का अर्थ घुमा कर अर्थात् मटका कर अथवा बिदा करने का इंगित कर के, और द्वितीय का अर्थ फेर कर, अर्थात् मेरी और से घर की ओर कर के, है ॥ ( अवतरण )-नायिका ने अपने द्वार पर से नायक को देख कर जो चेष्टाएँ कीं, उन पर नायक रीम गया है, और अपने अंतरंग सखा अथवा नायिका की सखी से उनका वर्णन करता है ( अर्थ )-भांहें ऊँची कर के ( सानंद देखने का भाव कर के ), आँचल [ किसी व्याज मे] उलट कर ( हटा कर) [ जिसमें सुंदर त्रिवली इत्यादि दिखाई दे जायँ ], सिर घुमा कर ( मटका कर), [ और फिर ] मुंह मोड़ कर ( पीछे फिर कर ) [ मेरी ] दृष्टि से दृष्टि मिला कर, कठिनता से ( अपनी इच्छा के विरुद्ध, लोकापवाद के भय से) [ वह ] भीतर चली गई ॥ रस की सी रुख, ससिंमुखी, हँस हँसि बोलत वैन । गूढ़ मानु मन क्य रहै। भए बूढ़-रंग नैन ।। २४३ ॥ |. १. तुम स इहै विनती (५) । २. परे रहो, डटे रहो (४), डरपो रहूँ, परौ हूँ ( ५ ) । ३. मारि मोरि (४, ५) । ४. डीठि ( ५ )।