१०० बिहारी-रत्नाकर रंग ) तथा मन, इन तीनों में एक ही हो रहे हैं, ऐसे । यह समस्त पद भी ‘जुगलकिसोर' का विशेषण है ॥ चहियत = चाहे जाते हैं, अभिलषित होते हैं । जुगलकिसोर ( युगलकिशोर )= श्रीराधिका तथा श्रीकृष्णचंद्र ॥ लोचन-जुगल = लोचनों के जोड़े ।।। ( अवतरण )-किसी युगल-उपासक ब्रजवासी भक़ की उक्रि है ( अर्थ )–नित्यप्रति एकत्र ही रहने वाले, [ तथा ] वयक्रम, रंग एवं मन से एक [ ही हो रहे ] युगलकिशोर को [ लोचनों के एक जोड़े से ] देख कर [ तृप्ति नहीं होती, प्रत्युत उनकी शोभा देखने के लिए ] लोचना के अनेक जोड़े चाहे जाते हैं ( अभिलषित होते हैं, अर्थात् यह अभिलाषा होती है कि हमको लोचनों के अनेक जोड़े मिलें, जिसमें हम इनकी छवि भली भाँति देख सके ) ॥ | दोर्मों का एकरंग होना इसलिए कहा है कि दोनों पारस्परिक आभा से हर रहते हैं, जैसा कि विहारी ने श्रीकृष्णचंद्र के विषय मैं अपने प्रथम दाहे मैं कहा है, तथा माघ ने नारद मुनि एवं श्रीकृष्णचंद्र के मिलने पर दोनों को एक वर्ण हो जाना वर्णित किया है प्रफुल्लतापिच्छनिभैरभीषुभिः शुभैश्च सप्तच्छदपांशुपाण्डुभिः । परस्परेणच्छुरितामलच्छवी तदैकवणाविव तौ बभूवतुः ॥ एकमन इस अभिप्राय से कहा है कि दोनों के मन एक से प्रेममय हो रहे हैं। इस दोहे मैं चमत्कार यह है कि दृश्य पदार्थ तो यद्यपि दो के स्थान पर एक ही रह गया है, तथापि देखने वाली इंद्रियाँ दा होने पर भी देखने वाले को तृप्त नहीं कर सकत, प्रत्युत तृप्ति के निमित्त आँखों के अनेक जोड़े अभिलषित होते हैं। इससे शोभाधिक्य व्यंजित होता है ।। मन न धरति मेरी कह्यौ हूँ पर्ने सयान । अहे, परनि परि प्रेम की परहथ पारि न प्रान ।। २३९ ॥ परनि = पड़न, धावा, लूट, अाक्रमण । बटपरा शब्द में भी परा' का अर्थ पड़ने वाला अर्थात् अक्रमण करने वाला होता है । ( अवतरण )-नायिका को सखी शिक्षा देती है ( अर्थ )-तू अपने सयान ( सयानपने के अभिमान ) के कारण मेरा कहा [ अपने] मन में नहीं धरती । अहे ( अरी, में तुझे चैतन्य किए देती हूँ। देख ), प्रेम की ‘परनि' (आक्रमण, डाके) में पड़ कर [तू अपने ] प्राण ‘परहथ' (दूसरे के हाथ, अर्थात् वश, में) मत डाल ॥ - ८ -- नग्व-रेखा सोहैं नई, अलमॉहैं सब गात । सैहैं होत न नैन ए, तुम मैं हैं कत खात ॥ २४० ॥ ( अवतरण )-खंडिता नायिका का वचन नायक से १. घरत (४, ५) ।