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बिहारी-रत्नाकर


बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )--[ उसको ] रातदिन (सव समय) सीपियों के हार [ के देखने ] के बहाने से “भाव उभर्राह भयो” ( एक भाव मात्र उभार पर अाया हुआ ), [ तथा ] कुछ एक भारी हो पड़ा हुआ [ अपना ] हृदय देखते (देखने में ) जाता है। [ भावार्थ यह है कि यिका के हृदय पर छातियों का कुछ उभार सा हो आया है, जिसको वह निरंतर देखा करती है; पर ज्ञातयौवना होने के कारण उसे प्रत्यक्ष नहीं देखती, प्रत्युत सीपियों का हार देखने के व्याज से ] ॥ इस दोहे का पूर्वाध ‘हियो' का विशेषण मात्र है, स्वतंत्र वाक्य नहीं ॥ गली अँधेरी, सकरी भी भटभेर अनि । परे पिछाने परसपर दोऊ परस-पिछानि । २५३ ॥ भटभेरा= वास्तव में 'भटभेरा दो प्रतिद्वंद्वी सेनायों के भटे, के, अथवा दो प्रतिभटों के, भिड़ जाने को कहते हैं। पर इसका प्रयोग शरीर से शरीर भिल जाने, सामना होने इत्यादि के अर्थ में होता हैं । परस-बिछानि= स्पर्श की विधता की पहचान से, अर्थात् दोनों के शरीर-स्पर्श में जो विशेषता है, उसके अनुभव से ।। ( अवतरण )--नायक नायिका ने, अँधेरे मैं, स्पर्श मात्र से एक दूसरे को पहचान लिया है। यही वृत्तांत सखी सखी से कहती है ( अर्थ )-अँधेरी [ तथा ] संकरी गली में आ कर [ दोनों का ] भटभेरा ( अंग से अंग का स्पर्श ) हो गया। स्पश की पहचान ले दोन परस्पर पचाने पड़ गए ( दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया ) । [ सखी यह जित करती है कि स्पर्श मात्र से परस्पर पहचान लेने से यह बात होता है कि ये दोनों इसके पूर्व भी एक दूसरे का आलिंगनसुख अनुभूत कर चुके हैं, अतः दान” की गुत प्रति लक्षित होती है ] ॥ कहि पठई जिद-भावती रिय वन की बात । फूल अंगन मैं फिर, अ. न अ समात ॥ २५१ ।। ( अवतरण )-प्रागमिष्प-पतिका नायिका पात के आने का संदेश पा कर हर्ष से फूली फूली फिरती है। सखी-वचन सखी से - ( अ ) -जी को सुख देने वाला [ अर] प्राने की बात प्रियतम ने ! किसी के द्वार। उस ] ५५ ५ ५ । । । । । । । । * कि हैं [ सके | अग अग में ।। । । । As के 5, ४ ।। उ उ । ।, ।। ५.३.४ नं ले. इते हैं उसके अंग अग में म समाते । यह ले . है ॥ १. भरभर. ( ३, ५ ) । २. प. ( २ ) | ३. मन ( २ ) । ४. अंग ( २ ) ।