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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर १११ पर दृष्टि लगाए और बिछने पर पीठ दिइ, जागता ही रह गया । यही वृत्तांत दूती नायिका से, उसके हृदय में प्रेम उपजाने के निमित्त, कहती है | ( अर्थ )-[ नेरे झरोखे की ] जाली के छेद के मार्ग से | तेरे ] अंगों का कुछ उजाला सा पा कर ( तुझे अपूर्ण रीति से देख कर ) [ वह रात भर ] झरखे पर हुष्टि लगा कर, [ विछौने पर ] पीठ दिए (टेके ), [ जिसमें कोई यह न समझे कि वह जागता है ] जागता रह गया [ तेरी झलक मात्र से वह तुझ पर ऐसा अलक़ हो गया है ] ॥ । परतिय-दोषु पुरान सुनि लखि मुलकी सुखदानि । केसु करि राखी भित्र हूँ मुहँ-ई सुसनि ॥ २६४ ।। परतिय-दोषु =परीगमन का दोष ।। मुलकी= मुँह बन कर मुसकिराई ।। कतु =वल ।।। ( श्रवतरण )-पौराण जी का सः परस्त्री से प्रेम था। वह बैठे किस दिन पुराण बाँच रहे थे। श्रोताओं में वह स्त्री भी थी । पुराण में किसी प्रसंग-वश परस्त्रमन का दोष निकला । उसे सुन कर वह स्त्री पौराणिकजी की अोर देख कर व्यंग्य से हँसी । इस पर पौराणिकजी को भी खी श्रा गई, पर उन्होने उस बल-पूर्वक रोक लिया, जिसमें अन्य श्रोता पर उनका मर्म भकट न होने पावे । इसी दृत्तांत को लक्षित कर के कोई किसी से कहता है, अथवा यह कवि की उक्ति है | ( अर्थ)--परस्त्री [ के गमन ] का दोष पुराण में सुः कर [ वह परराणिकजी को] सुख देने वाली [ उनकी ओर ] देख बार 'मुलकी' । [ उधर ] भिश्न ( पौराणिकज ) ने भी [ अपने ] मुख पर आई हुई लकिराहट को कस ( बल ) कर के रोका ॥ सहित सनेह, संकोच, सुख, स्वेद, कंप, मुसकाने । प्रान पानि करि श्रापर्ने, पोन धरे म पनि ॥ २६५ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका के द्वार पर किसी कार्यवश गया था। नायिका शिष्टाचार करने के निमित्त उस को पान देने श्राई । पान देत समय की नायिका की चेष्टा देख कर नायक रांझ गया । वही वृत्तांत वह अपने अंतरंग सखे। अथवा दूती से कहता है| ( अर्थ )-[ उस स्त्री ने ] स्नेह, संकोच ( लज्जा ), सुख ( हर्ष ), स्वेद ( पसीने ), कंप [ तथा ] मुसकिराहट [ इन सव भाव ] के साथ [ मेरे ] प्राणों को अपने हाथ (वश) में कर के मेरे हाथ पर पान धरे ( रखे ) ॥ - - -- -- स* जतननु लिमिर-रितु सहि विरईनि-तन-लापु । बसिरे के प्रभ- दिनु पथ परोसिन पु !॥ २६६ ।। १. हँसी मुलांके ( १ ), लखी मुलक ( २ ), लखो सुबाल ( ४ ) । २. असि ( ३, ५ ) । ३, मुसिकानि ( १, ४) । ४. मुसिकानि ( १, ४) । ५. पानि ( ५ ) । ६. बिरहनि ( २, ३ ), विरहन ( ५ )। ७. परासन ( ५ )।