विहारी रत्नाकर सीरें = ठंडे, शीतल ॥ ( अवतरण १ )-प्रोपितपातका नायिका की दूती नायक से विरह-निवेदन करती है
( अर्थ १ )-[ उसके शरीर से विरह की ज्वाला ऐसी कराल उठती है कि उसके ताप से पड़ोसिन भी जली जाती है। अतः] शिशिर ऋतु में [अनेक] शीतलोपचारों [ के सहारे 1 से [ किसी न किसी प्रकार उस ] विरहिणी के तन का ताप सह कर [ अब ] ग्रीष्म के दिनों में पड़ोसिन पर [ उसके पड़ोस में ] बसने के निमित्त पाप ( मानो किसी पाप का परिणाम ) पड़ा है।
इस दोह का यही सामान्य भावार्थ प्रायः सभी टीकाकारों ने किया है। परंतु 'पस्यौ परोसिनि जप' इस खंड-वाक्य से एक और गूढ़ भावार्थ की झलक भी दिखलाई देती है। अतः वह अर्थ भी लिखा आशा है ॥
| ( अवतरण २)-नायक का पड़ोसिन से प्रेम था, जिसके कारण नायक नायिका में बहुधा काल हा करता था। इससे दुखी हो कर नायक परदेश चला गया। अब नायिका विरह से अत्यंत संतप्त हो रही है। अतः उसकी दूती नायक के पास जा कर कहती है
(अर्थ २)–शिशिर ऋतु में सीरे यत्नों से [ उस ] विरहिणी का तन ताप सह कर । अब 1 ग्रीष्म के दिनों में [ उस ] पड़ोसिन पर [ जो कि इस विरह का मूल कारण है, उसके पड़ोस में ] बसने के निमित्त [ इस विछोह कराने की कारण होने के ] पाप [ का फल ] पड़ा है ॥
| इस अर्थ में यद्याप चतुर दूती पड़ोसिन पर रोष प्रकट करती है, पर उसका अभिप्राय यह भी व्यजित होता है कि अब अापकी प्यारी पडोसिम को भी महा कष्ट हो रहा है । अतः यदि उस नायिका से रुष्ट होने के कारण नहीं चलते हैं, तो उस पड़ोसिन ही को दुःख से बचाने के निमित्त पधारिए ।
सोहतु सं] समान साँ, यहै केहै सब लोगु ।
पान-पीक औठनु बनै, काजर नैननु जोगु ॥ २६७ ॥ जोगु= साथ, मेल ।।
( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्ति, अथवा नायक के ओठ पर अंजन और आँखों में पीकलोक देख कर खंडिता की उक्ति--
( अर्थ )[ प्रत्येक मनुष्य अथवा पदार्थ का ] संग [ अपने] समान [ मनुष्य अथवा पदार्थ ] स सुशोभित होता है, यही [ बात ] सव संसार कहता है [ कुछ मैं ही नह” 1।
न की पीक स [ और ] श्रीठा से. ( एवं ] काजल से [ौर ] नयना से 'जोगु’ ( संयोग अर्थात् साथ ) बनता है ( शोभित होता है ), [ क्याकि पान की पोक और ओठ, दोन लाल हैं तथा काजल और नयन, दोनों श्याम ] ॥
१. अंग ( ३ )। २. सयानो ( ४ ) ।
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