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बिहारी-रत्नाकर

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विहारीराफर १२७ इस वृथा की दौड़ धूप से तेरे हाथ क्या आता है ? तेरी तृष्णा तुझे मृग-तृष्णा मात्र दिखा रही है। बदाँ सिफ़्ल मानी कि जड्ढे मेरद् । उरूसे बचंगाखे खेश आवरद् ॥ तू उस नीच मनुष्य की भाँति है, जो बड़ा उद्योग कर के किसी सुंदरी को अपने हाथ में लाता है । बले बर् न अजू बाग़ हुस्न खुरद् । बदस्ते हरी व बेरपरन् । पर उसके सौंदर्य की वाटिका का फल स्वयं नहीं खाता, प्रत्युत उसको अपने पतिद्वंद्वी के हाथ में सौंप देता है । सीस-मुकेट, कटि-काछेनी, कर-मुरली, उर-माल । इहिँ बान मो मन सदां बसी, बिहारी लाल ॥ ३०१ ॥ बानक= बनाव, साज, वेष ।। ( अवतरण )-कवि अपने उपास्य देव श्रीवृंदावनविहारी कृष्णचंद्र से नित्यप्रति अपने हृदय में, गोपाल रूप धारण किए हुए, बसने की प्रार्थना करता है | ( अर्थ )--हे विहारी लाल ( आनंद-क्रीड़ा करने वाले लाल ), मेरे हृदय में [ तुम ] सदा इस ( ऐसे ) बनक से बसो, जिसमें सिर पर मार-मुकुट, कटि में काछनी, कर में मुरली [ एवं ] उर पर वनमाला है ॥ | इस दोहे के पूर्वार्ध मैं चार समस्त पद हैं, और उन चारों ही मैं बहुव्रीहि समास है। वे चारों पद ‘बानक' शब्द के विशेषण हैं॥ 'मुकट' तथा 'माल' के अर्थ यहाँ, ‘काछनी' तथा ‘मुरली' के साहचर्य से, मोर-मुकट तथा बनमाला होते हैं। कवि श्रीकृष्णचंद्र के गोप-वेष का उपासक है, अतः वह उसी वेष से उनको अपने हृदय मैं बसाना चाहता है। उसे द्वारिकाधीश के मणि-मंडित किरीट, पाटमय पीतांबर, सुदर्शन चक्र तथा वैजयंती माला धारण किए हुए रूप से कोई प्रयोजन नहीं है ॥ भृकुट-मटकनि, पीतपट-चटक, लटकती चाल । चलचग्व-चितवनि चोरि चितु लियौ बिहारीलाल ॥ ३०२ ॥ चटक=चटकीलापन ॥ लटकती= झूमती हुई ।। ( अवतरण )-नायिका श्रीकृष्ण चंद्र को कहाँ वन मैं देख र रीझी है। अतः यह उनके स्वरूप का वर्णन करती हुई सखः से कहती है ( अर्थ )-भ्रकुटी की मटक, पीत पट की चटक, लटकती हुई चाल [ एवं ] चंचल नेत्रों की चितवन से विहारी लाल ने [ मेरा ] मन चुरा लिया ॥ संगति-दोषु लगै सबनु, कहे ति साँचे बैन । कुटिल-अंक-ध्रुव-सँग भएँ कुटिल, बंकगति नैन । ३०३ ॥ १. मुकुट (४) । ३. कामिनी ( ३ ) । ३. बानिक ( ३, ५) । ४. बसो सदा ( ५ ) । ५. लिए (४) ।