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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१६९

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बिहारी-रत्नाकर


२६ बिहारी-रत्नाकर स्वारथुः सुकृतु न, श्रम बृथा; देखि, बिहंग, बिचारि । बाज, पराएँ पानि परि हूँ पच्छीनु न मारि ॥ ३०० ॥ स्वारथु= अपना लाभ ॥ सुकृतु= पुण्य ।। बिहंग=आकाशगामी, स्वच्छंद-विहारी, दूरदर्शी । यह शब्द पक्षी के अर्थ में प्रयुक्त होता है । पच्छीनु=(१) पक्षियों को । (२) अपने पक्षवर्तियों अर्थात् स्वजातियों को ॥ | ( अवतरण )—किसी दुष्ट स्वामी के सेवक को, जो उस दुष्ट के निमित्त स्वजन को कष्ट देता है, कोई बाज़ पर अन्योकि कर के समझाता है ( अर्थ ) हे बाज़ ! दुसरे के हाथ में पड़ कर ( दूसरे के वश में हो कर) तु पक्षियों (१. चिड़ियों । २. स्वजनों ) को मत मार। हे विहंग ( १. पक्षी । २. स्वच्छंद-विहारी ), [नैंक अपने मन में ] विचार कर देख, [इस काम में तेरा न तो ] स्वार्थ है, [ और ] न सुकृत, [ केवल ] वृथा ( बिना लाभ का ) श्रम है ॥ ज्ञात होता है कि मि राजा जयशाह जो शाहजहाँ की ओर से हिंदुओं के विरुद्ध युद्ध करते थे, वह बिहारी को अच्छा नहीं लगता था। सो उसने यह अन्योकि उन्हीं पर कही है। ‘पराएँ और ‘परछीनु' ( पक्षी ) शाहजहाँ तथा हिंदुओं के ऊपर बहुत अच्छे घटते हैं। 'बिहंग' शब्द से कवि यह व्यंजित करता है कि तेरी गति तो अनिरुद्ध है, और तू बड़ा दूरदर्शी भी है, फिर दूसरे के वश में पड़ कर स्वजातिर्यों को क्याँ हानि पहुँचाता है, और इसका परिणाम नहीं सोचता ॥ | जयशाह को, मुसलमान की ओर हो कर हिंदुओं से लड़ने पर, शिवाजी ने भी अपनी चिट्ठी मैं, बहुत फटकारा है। उस चिट्ठी के कुछ शेर नीचे लिखे जाते हैं जे खुन दिखो दीदए हिंदुवाँ। तु ह्वाही शवी सुर्खरू दर् जहाँ ॥ हिंदुओं के हृदय तथा आँखों के रक्त से तु संसार में सुर्खरू ( लाल मुँह वाला ) हुअा चाहता है । न दानी मगर की सियाही शवद् । क़ज़ाँ मुल्को द रा तबाही शवद् ॥ पर तू यह नहीं समझता कि इससे तेरे मुँह पर कालख पोती जा रही है, क्योंकि इससे देश तथा धर्म का सत्यानाश होता है ॥ | अगर सर् दमे दर् गरेबाँ कुन । चा नज़ारए दस्तो दामाँ कुन । यदि तू क्षण मात्र अपना सिर झुका कर सोचे और अपने हाथ तथा दामन का [ जो कि रक्त से सने हुए हैं ] निरीक्षण करे । बु यीनी कि इँ रंग अज़ खने कीस्त । कि दर दोजहाँ रंगे इँ रंग चीस्त ॥ तो तुझे ज्ञान हो कि यह रंग किसके खून का है, और इहलोक तथा परलोक, दोनों में इस रंग का वास्तविक रंग क्या है, काला है अथवा लाल । म बायर् कि बा मा नषद् आवरी । सरे हिंदुवाँ जैरे गद् आवरी ॥ तुझको हम लोगों से युद्ध करना और हिंदुओं के सिरों को धूल में मिलाना उचित नहीं है ॥ अ तुर्कता जी से शायद् तुरा । हवायत् सुराजे नुमायद् तुरा ॥ १. पंधीहि ( २ ), पच्छहि ( ३, ५ ), पंच्छिनु नहि ( ४ } }