विहारी रखाकर नहीं, उतरता नहीं ॥ विषमु= सादृश्य-रहित, दुस्तर ।। छबि-छाकु= छवि को नशा, सौंदर्य देख कर चढ़ा हुआ प्रेम का नशा ॥ ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका को छवि का ऐसा नशा चढ़ा हुआ है कि वह क्षण मात्र अपने को सँभाल नहीं सकती । सखियाँ उसकी यह दशा देख कर आपस में कहती हैं ( अर्थ )-छवि ( सौंदर्य ) का छाक (नशा )[ और सब नशों से ] बड़ा विषम होता है । [ और नशों को स्थिर रखने के निमित्त घड़ी घड़ी पीना पड़ता है, पर यह नशा] क्षण मात्र छक लेने पर ( पी लेने पर ) फिर उछकता नहीं ( उतरता नहीं )। [ और नशे, अर्थात् भंग, मदिरादि के नशे, डर से उतर जाते हैं, पर यह ] डर से नहीं टलता। [और नशे नींद आ जाने पर शांत हो जाते हैं, पर यह ] नींद से [ भी ] नहीं पड़ता ( उतरता), [ क्योंकि इसमें नींद आती ही नहीं ]। [ और नशे नियत काल व्यतीत हो जाने पर हर जाते हैं, पर इस ] काल का विपाक [ भी ] नहीं हरता॥ रमन कह्यो हठि रमन कौं रतिबिपरीत-बिलास । चितई करि लोचन सतर, संलज, सरोसे, सहास ॥ ३१९ ॥ रमन=नायक ने ॥ हठि=हठ कर के ॥ रतिविपरीत-बिलास=विपरीत रति की क्रीड़ा में ॥ सतर= तर्जन-युक्त, तीखे ॥ ( अवतरण )-सखी को वचन सखी से ( अर्थ )--रमण ने हठ कर के [ नायिका से] विपरीत रति के विलास में रमने ( प्रवृत्त होने ) को कहा । [ तब नायिका ने अपने ] नेत्रों को सतर, सलज, सरोष [ तथा ] सहास कर के ( बना कर) नायक की ओर ] देखा ॥ 'करि' शब्द से कवि व्याजत करता है कि नायिका ने अपने लोचन को जान बूझ कर सतर, सशज, सरास तथा सहास बनाया। इससे किलकिंचित् हाथ व्यजित होता है ॥ चति सी चितवन चितै भई ओट अलसाई । फिरि उ*कनि कौं मृगनयनि दृगनि लगनिया लाइ ॥ ३२० ॥ पॅचति सी = अपनी ओर आकर्षित करती हुई सी । फिरि उझकनि क =फिर उझक,कर वह मुझे उसी ति देखे, इस बात के निमित्त । दृगनि-हमारी पाँचौं प्राचीन पुस्तकों में 'दृगनि' ही पाठ मिलता है, अतः यही पाठ यहाँ रक्खा गया है। किंतु इस संस्करण की परिपाटी के अनुसार इसे 'दृगनु' होना चाहिए । ज्ञात होता है कि 'लगनिया' के 'लगान' के अनुप्रास के लिए ही 'दृगनि' पाठ सन पुस्तकों में लिखी गया है। लगनिया=अभिलाषा, लगन ॥ ( अवतरण )-नायिका की चितवन पर आसक्त हो कर नायक उसकी खिड़की के नीचे, उसके फिर झाँक कर देखने की आशा जगाए, खड़ा है, और उसकी सखी अथवा अपने अंतरंग ससा से १. सगरब ( २ )। २. सलज ( २ ) । ३. चितवनि ( २ )।