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बिहारी-रत्नाकर

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१३ बिहारी-रत्नाकर गढ़-रचना, थरुनी, अलक, चितवनि, भौंह , कमान । आधु बँकाईहीं चदै, तरुनि, तुरंगम, तान ।। ३१६ ॥ ( अवतरण )–नायिका नायक पर अत्यंत आसक्त हो कर उसके अधीन हो रही है। सखी उसको आत्मगौरव की रक्षा के निमित्त शिक्षा देती है | ( अर्थ १ )-गढ़ की रचना, बरुनी, अलक, चितवन, भौंह [ तथा ] कमान ( धनुष ) का अाध ( अय, मोल, आदर ) बँकाई ही से चढ़ता है. [ और इसी प्रकार ] तरुणी (युवा स्त्री ), तुरंगम ( घोड़े ) [ और ] तान ( गाने में स्वरों के चढ़ाव उतार) का [ भी ] ॥ इस दोहे का सब टीकाकारों ने यही अर्थ किया है । पर इस अर्थ मैं तरुनि', ‘तुरंगम', 'तान', ये शब्द असंवद्ध से हो जाते हैं। अतः इसका अर्थ इस प्रकार किया जाय. तो अच्छा हो -- ( अर्थ २ )–गढ़ की रचना, बरुनी, अलक, चितवन, भौंह [ तथा ] कमान ( धनुष) पर आध ( अय, मोल, आदर ) बँकाई ही से चढ़ता है, [ तथा ] तरुणी ( युवा स्त्री ) [ एवं ] तुरंगम ( घोड़े ) पर तान ( खिंचाव ) से ॥ | इस अर्थ में 'तान' का अर्थ खिंचाव होगा । स्त्री पक्ष में खिंचाव का अर्थ आत्मगौरव के साथ अपने को लिए दिए रहना और नायक के अत्यंत प्रधान न हो जाना होगा । तुरंग-पक्ष में इसका अर्थ तन कर खड़ा होना होगा, जैसे कजई कस देने पर घोड़े तन कर ठाट से खड़े हो जाते हैं । इत अविति चलि, जाति उत चली, छसातक हाथ । चढ़ी हिंडोरै मैं रहै लगी उसासनु साथ ।। ३१७ ॥ छसातक = छ सात के अनुमान || हिंडोरे सैं = हिँडोले से किसी पदार्थ पर, मानो हिंडाले पर । ( अवतरण ) --विर; मैं नायिका की अत्यंत कृशता एवं उसके उच्छ्वास की प्रबलता का वर्णन सखी सखी से करती है-- ( अर्थ )-[ वह तन्वी नायिका विरह से ऐसी कृश हो रही है, और उसके उल्लास ऐसे प्रबल हो रहे हैं कि वह ] उच्छासों के साथ लगी हुई हिंडोले से [ किसी पदार्थ ] पर चढ़ी रहती है, छ सात हाथ के अनुमान ! कभी ] इधर चल कर आती है, [ और कभी ] उधर चली जाती है ॥ . डर न टरै, नींद न परै, हरै न काल-विपाकु । ' छिनकु छाकि उछकै न फिरि, खरौ विषम छषि-छाकु ॥ ३१८॥ * परै =शांत होता है। पड़ना क्रिया का प्रयोग शांत होने के अर्थ में अनेक वाक्यों में पाया जाता है, जैसे 'हवा पड़ गई ॥ काल-बिपाकु =नियत काल का पूरा होना । उछकै न= उछकता नहीं, उचटता १. बढे ( ३, ५ ) । २. श्रावत ( २, ३, ५) । ३. जात ( १, २, ३, ५) । ४. सी (४) ।