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विहारीरत्नाकर ( अवतरण)-दूत नायिका से शीघ्र अभिसार कराना चाहती है, अतः बड़ी चतुराई से उसकी भूषण सजित करने में देर लगाने से वारण करती है--- | ( अर्थ )-[ तु] कनक के भूषण मत पहन, [ यह वाक्य ] इस हेतु कहने में आता है [ कि तेरे ] शरीर में [ सोने के गहने] दर्पण के मोरचे से दिखाई देते हैं ( अर्थात् तेरे शरीर की कांति के सन्ख कनक मलिन जान पड़ता है, अतः कनक के भूषण तेरे शरीर पर ऐसे जात होते हैं, जैसे दर्पण पर लगे हुए मोरचे ) ॥
जदपि चवाइनु चकनी चलति यहँ दिसि सैन ।
तऊ न छाड़त दुहुनु के हँसी रसीले नैन । ३३६ ॥ चाइनु चीकनी=चवाव से चुपड़ी हुई, भरी हुई ॥ सैन= संज्ञा, इशारा ॥
( अवतरण )- यद्यपि लोग नायक नायिका का प्रेम ताड़ गए हैं, और इस विषय में परस्पर सनकी मटकी किया करते हैं, तथापि सामना होने पर वे दोन मुसकिरा ही देते हैं। सखी-वचन सखी से
( अर्थ )-यद्यपि चवावों से भरी हुई सैन चारों ओर चलती है, तथापि दोनों के रसीले ( प्रेम-भरे ) नयन [ सामना होने पर ] हँसी ( हँस देने का स्वभाव ) नहीं छोड़ते ॥
अनरस हूँ रसु पाइयतु, रसिक, रसीली-पास ।।
जैसैं साँठे की कठिन गाँव्यौ भरी मिठास ।। ३३७ ॥ साँठे= इसका अर्थ सभी टीकाकारों ने ईख किया है । अवध-प्रांत में साँठा अथवा सँठा सरकंडे को कहते हैं, पर यह अर्थ यहां संगत नहीं होता । ज्ञात होता है कि यह शब्द शर्कराकांड का विकृत रूप है ॥ | ( अवतरण )–नायिका न मान किया था। जब वह मनाने से न मानी, तो नायक उसके यहाँ से चला आया। अब उसकी दूती नायक को समझा कर फिर नायिका के यहाँ खाया चाहती है| ( अर्थ )-हे रसिक, रसीली के पास अनरस (१. रोष के समय । २. रसहीन स्थान) में भी रस ( १. आनंद । २. स्वाद ) पाया जाता है, जिस प्रकार साँठे (ऊख ) की कठिन ( कड़ी ) गाँठ भी मिठास से भरी होती है ॥
गोरी छिगुनी, नखु अरुनु, छला स्यानु छबि देइ ।।
लहत मुकति रति पलकु यह नैन त्रिबेनी सेइ ॥ ३३८॥ छिगुनी = कनिष्ठिका अँगुली ।। मुकति रति =रति-रूपी मुक्त, अर्थात् ऐसी प्रीति, जो चित्त को संसार के सब कामों से छुड़ा देती है ।।
( अवतरण )-नायक ने नायिका की कामी अँगुली मैं नीलम-जटित बला देखा है, सो उसकी शोभा पर आसक्त हो कर स्वगत अथवा नायिका की सखी से कहता है
१. गाँठे ( २, ४, ५ ) ।
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बिहारी-रत्नाकर