१४८ बिहारी-रत्नाकर तिय, कित कमनैती पढ़ी, विनु जिहि भौंह-कमान । चलचिन-बेझै चुकति नहिँ बकबिलोकनि-बान ॥ ३५६ ॥ कित = कहाँ ॥ कमनैती = धनुर्विद्या । जिहि = ज्या ।। धेझै = वेभ्य पर, लक्ष्य पर ।। ( अवतरण )-नायक नायिका की तिरछी चितवन से घायल हो गया है, अतः अवसर पा कर उससे कहता है ( अर्थ )-हे स्त्री, [ तूने यह विलक्षण ] कमनैती कहाँ पढ़ी ( सीखी ) है [ कि ] भौंह की विना ज्या की कमान [ तथा ] तिरछी चितवन के बाण से चल चित्त के लक्ष्य पर [त संधान में ] चूकती नहीं ॥ नायिका की कमनती में विलक्षणता यह है कि यद्यपि विना ज्या की कमान काम नहीं देती, पर वह अपनी भौंह की विना ज्या ही की कमान से काम लेती है : तिरछा बाण ठीक लक्ष्य पर नहीं पहुँचता, पर उसकी तिरछी चितवन ही को बाण पूरा काम कर लेता है; और चंचल लक्ष्य पर निशाना ठीक नहीं लगता, पर वह संसार भर मैं सवसे चंचल पदार्थ चित्त को भी बेध लेती है ॥ दुसह दुराज प्रजानु कौं क्यों न बढ़े दुख-दंदु । अधिक अॅधरौ जग करत मिलि मावस रबि-चंदु ॥ ३५७ ।।। दुख-दंदु ( दुःख-द्वंद्व ) = दुःख का झगड़ा अर्थात् दो दुःख का उत्कर्ष । मावस= अमावस्या ॥ (अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है कि 'दुराज' अर्थात् दुअमली मैं प्रजा को अधिक दुःख होता है | ( अर्थ )-दुःसह द्विराज्य में प्रजाओं के निमित्त दुःख का द्वंद्व क्यों न बढ़े। [ देखो,] अमावस को सूर्य [तथा] चंद्रमा मिल कर (एक राशि पर अधिकार कर के) जगत् में अधिक ( और सब तिथियों की अपेक्षा विशेष ) अंधेरा ( १. तिमिर । २. अंधेर, अत्याचार ) करते हैं ॥ इस दोहे का अर्थ किसी किसी ने नायिका-भेद में भी लगाया है। पर हमारी समझ में इसे कवि की प्रास्ताविक उक्रि ही मानना समीचीन है ॥ ललन-चलनु सुनि पलनु मैं अँसुवा झलके आइ । भई लखाइ न सखिनु हैं झूॐ हीं जमुहाइ ॥ ३५८ ॥ ( अवतरण )-परकीया प्रवत्स्यत्पतिका नायिका की दशा तथा चातुरी कवि कहता है ( अर्थ )–नायक का चलना ( विदेश गमन ) सुन कर [ नायिका की ] पलकों में आँसु झलक आए (डबडबा आए ) । [ पर उसने ] झूठे ही ( विना जम्हाई आए ही ) जम्हाई ले कर [ ऐसी विदग्धता की कि ] सखियों से भी लक्षित न हुई ॥ १. कत ( २, ३, ५ ) । २. बेझौ ( २ ), बेधत ( ३, ५) । ३. हैं ( १, २ )।