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बिहारी-रत्नाकर


बिहारी-राकर तौ लेगु या मन-सदन मैं हरि अवै किहिँ बाट । विकट जटे जौ लगु निपट खुटै न कपट-कपाट ॥ ३६१ ॥ ( अवतरण )-- कपटी भक़ से कवि की उक़ि है कि यदि हरि को अपने हृदय में बसाना चाहते हो, तो कपट का परित्याग कर दो | ( अर्थ )-इस मन-रूपी गृह में तब तक हरि ( भगवान् ) किस बाट से आवें, जब तक निपट विकट ( अत्यंत दृढ़ ) जड़े हुए कपट-रूपी किवाड़ न खुलें ॥ है कपूरमनिमय रही मिलि तन-दुति मुकतालि । छिन छिन खरी बिचच्छिनौ लखति क्वाइ तिनु अलि ॥ ३६२ ॥ | कपूरमनि ( कर्पूरमणि )-इसका दूसरा नाम संस्कृत में तृणमणि है । फ़ारसी में इसी को करुवा' ( तृण को आकर्षित करने वाला ) कहते हैं । यह एक प्रकार का पांडुर-वर्ण पत्थर होता है, और हाथ पर घिसे जाने पर तिनके को खींचने लगता है, जिस प्रकार चुंबक पत्थर लोहे को खींचता है ॥ बिचच्छिनौ = विचक्षण होने पर भी ।। तिनु ( तृण ) = तिनका ॥ ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका की तन-युति की प्रशंसा कर के रुचि उपजाती है ( अर्थ )-[ उसकी सुनहरी ] तन-धुति से मिल कर मुक़ालि ( मोतियों की खड़ी ) कर्पूरमणिमय हो रही है, [ और ऐसा धोखा देती है कि उसकी ] बड़ी विचक्षण ( चतुर ) सखी भी क्षण क्षण पर [ उसमें ] तृण छुआ कर देखती है ( उसकी परीक्षा करती है ) ॥ | क्षण क्षण पर सखी इस कारण देखती है कि मोती ऐसे कप्रमाण के सदृश हो गए हैं कि यद्यपि एक आध बार उनके तिनका न खींचने से वह यह मान लेती है कि वे तृणमणि नहीं हैं, तथापि उसको भ्रम हो जाता है कि कदाचित् किसी कारण विशेष से इन्होंने इस बार तिनका नहीं था । अतः घर तृण को बार बार उनमें बुआ कर अपना भ्रम नियारित करती है । दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुर्रत चतुरं-चित प्रीति । परति गाँठि दुरजन हियँ";दई, नई यह रीति ॥ ३६३ ॥ उरझत = अापस में गुथते हैं, अर्थात् मिलते हैं । टूटत कुटुम = कुटुंब के संबंध टूट जाते हैं। जुरत = प्रेम से परस्पर संबद्ध हो जाते हैं । गाँठि = श्रांट, ईर्ष्या ।।। | ( अवतरण ) - परकीया नायिका अपने हृदय का तर्क वितर्क अपनी अंतरंगिनी सही से हती है ( अर्थ )—प्रीति [ के व्यवहार ] में उलझते [ तो] हग हैं, [ पर ] टूटते कुटुंब [ के १. लगि (४) । २. आवहिं ( १, ४ )। ३. किहि ( १, ४, ५ ) | ४. जरे ( १ )। ५. नौ । ( १, २, ४)। ६. कुर्दै ( २ ) । ७. विचिच्छिनो ( ३, ५), विचच्छिनी (२) । ८. उरति ( १ )। १. चित्र औ (४)। १०. नियनि ( १ )।