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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी:रत्नाकर ( अर्थ )-माला-रुपी पतवारी को पकड़ कर, [ और ] हरिनाम को नाव कर के (बना कर ) संसार-रूपी सागर को तर ( पार कर ) । [ इस भवसागर के तरने का ] और कुछ उपाय नहीं है ॥ लपटी पुडुप-पराग-पट, सनी स्वेद मकरंद ।। अवति, नारि नचोड़ ल, सुवद वायु गति मंद ।। ३९२ ॥ ( अवतरण )-इस दोहे मैं कवि नवोढ़ा नायिका की उपमा दे कर शीतल, मंद, सुगंध वायु का वर्णन करती है ( अर्थ )-पुष्प-पराग-रूपी पट में लिपटी हुई [ एवं | पसीने अर्थात् मकरंद में सनी हुई सुखद वायु मंद मंद गति से, नवोढ़ा ( भई ध्याही हुई ) स्त्री की भाँति, आ रही है ॥ | पुष्प-पराग से सुगंध एवं मकरं। मैं सनने से शीतलता व्यंजित होती है, और 'गति मंद' तो दोहे में स्पष्ट उक़ ही है । इस दोहे में बिहारी ने 'वायु' शब्द का स्त्रीलिंग-प्रयोग किया है, पर इसके पहले के दोहे में ‘बार' शब्द को पुलिंग माना है । मापा मैं वायु शब्द स्त्रीलिंग तथा पुलिंग, दोन ही रीति से प्रयुक्तं होता है । ललन, सलोनै अरु रहे अति सनेह स पांगि। तनके कंघाई देत दुख सूरने ल हे लागि ।। ३९३ ।। सूरन--अवध में इसको कॉद कहते हैं । यह मुँह में कनकनाहट उत्पन्न करता है । इसी को सूरन का मुँह में लगना कहते हैं। लवण तथा नृत में मली भाँति पकाने से इसकी कनकनाहट जाती रहती हैं। पर यदि यह कुछ भी कच्चा रह जाता है, तो फिर मुँह में लगता है । यहाँ नायक की कचाई से उसका परस्त्री के फेर में पड़ जाना अभिप्रेत है, और उसके मुँह लगने से उसका अपने अपराध का धुष्टता-पूर्वफ मुकरना कहा गया है । 'तनक कचाई देत दुख सूरन ल मुँह लागि' का भावार्थ यह है कि यदि यह कचाई तुममें न होती, तो तुमको क्यों मुँह लगना पद्दता ।। ( अवतरण )---खंडिता नायिका की उक्ति नायक से-- ( अर्थ ) -हे लालन, [ यद्यपि श्राप ] सलेने ( १. सुंदर।२. लषणयुक्त ) हैं, और स्नेह ( १. प्रीति । २. चिकनाई अर्थात् तेल अथवा घी ) से भली भाँति पग ( परिपक हो ) रहे हैं, । तथापि ] तनिक कचाई से ( कचाई के कारण ) मुंह लग कर ( १. धृष्टतापूर्वक झूठी बातें कह कर ।२. मुंह में कनकनाहट उपजा कर ) सूरन की भाँति दुःख देते हैं।


-- न करु, म अरु सबु जगु करत; त विनु काज तजति ।

हैं कीजै नैन, जौ साँची हैं खात ।। ३९४ ॥ १. न्यौं (२) । २. मुख ( १, ४)।