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बिहारी-रत्नाकर


विहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-खंडिता नायिका की उक्ति नायक से-- ( अर्थ )-सब जगत् कहता है (सय जगत् में यह कहावत प्रसिद्ध है) [ कि ] 'न कर, न डर' ( न अपराध कर, न दंड देने वाले से डर)। [ अतः यदि आप अपराधी नहीं हैं, तो ] विना कारण क्यों लजित होते हैं { आँखें नीची किए हुए हैं ) । यदि [ आप अपने निरपराध होने की ] सच्ची शपथ खाते हैं, [ तो अपने ] नयन सामने कीजिए ॥ रहिहैं चंचल प्रान ए, कहि, कौन की अगोट ।। ललन चलन की चित धरी, कल त पलनु की ओट ।। ३६५ ॥ अगोट= प्रतिबंध, रुकावट ॥ ( अवतरण )--प्रवत्स्यत्पतिका नायिका का वचन सखी से-- ( अर्थ )-[ हे सखी, तू ही ] कह ( बतला ), थे [ मेरे ] चंचल प्राण किसकी अगोट ( रुकावट ) से [ शरीर में ] रहेंगे । ललन ( प्रियतम ) ने [ तो ] चलने (विदेशगमन ) की [ बात ] चित्त में धरी ( ठानी ) है, [ और यहाँ उनके ] पलकों की ओट [ होने ही ] पर कल ( चैन ) नहीं [ पड़ती ] ॥ | - - जौ चाहत, चटकन घटे, मैलौ होइ न, मित्त । रज राजसु न छुवाइ तौ नेह-चीन चितं ॥ ३९६ ॥ चटकन चटकीलापन, चमकदमक, स्फूर्ति ॥ रज = धूलि ।। राजसु = रजोगुण अर्थात् गर्व, क्रोध इत्यादि ।। ( अवतरण )-कोई अनुभविक सज्जन किसी को चित्त की चोप तथा उज्ज्वलता स्थिर रखने के उपाय की शिक्षा देता है-- | ( अर्थ )--हे मित्र, यदि [ 1 ] चाहता है [ कि चित्त की ] चटक न घटे [ और वह ] मैला न हो, तो रजोगुण-रूपी रज स्नेह से चिकनाए हुए चित्त मैं मत छु । [ भावार्थ यह है कि जिस प्रकार धूलि तेल लगी हुई वस्तु पर सहज ही में जम कर उसको मैला कर देती है, उसी प्रकार स्निग्ध चित्त पर गर्व इत्यादि रजोगुण का प्रभाव पड़ कर उसको मलिन कर देता है ] ॥ कोरि जतन कीजै, तऊ नागर-नेहु दुरै न । कहैं देत चितु चीकनौ नई रुखाई नैन ॥ ३९७ ॥ ( अवतरण )---लक्षिता नायिका से सखी का वचन है । नायिका के मन में श्रीकृष्णचंद्र के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया है, जिससे उसके भाव रसीले हो गए हैं। इसे छिपाने के लिये उसने अपनी । १. पॅगोट ( ३, ५) । २. चाहे ( २ ) । ३. मित्त ( ४ ) । ४. छुवाइयै (२)। ५. चौकनौ ( १, ३, ५) । ६. चित्त (४)।