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बिहारी-रत्नाकर


विखे-रत्नाकर सन ) = दुर्योधन का छोटा भाई । जब पांडव लोम जुए में द्रोपदी को हार गए, तो कारखाँ ने उनके अपमान के निमित्त उसे भरी सभा में नंगी करना चाहा । पर जब दुःशासन उसका चीर खींचने लगा, तो श्रीकृष्णचंद्र के अनुग्रह से वह बढ़ने लगा; यहाँ तक कि चीर के ढेर के ढेर लग गए, पर उसका अंत न आया ॥ पंचाली ( पांचाली ) = द्रौपदी ॥ ( अवतरण )-नायक परदेश गया है, और जाते समय अपने लौटने का कोई दिन नियत्र कर गया है। प्रोषितपतिका नायिका के दिन, उसके वियोग मैं, बड़ी कठिनता से करते हैं। यद्यपि प्रियतम की बदी हुई अवधि उसके विरह के समय को अपनी ओर खाँच खाँच कर कम करती जाती है, तथापि उसका दुःख प्रतिक्षण ऐसा बढ़ता जाता है कि उसको शेष समय उतना ही अधिक प्रतीत होता है, जितना समस्त अवधि का समय था । यही व्यवस्था नायिका सखी से कहती है | ( अर्थ )-हे सखी, [ मेरा ] विरह (विरह-दुःख का समय ) द्रौपदी के चीर के समान बढ़ता [ही ] जाता है । अवधि-रूपी धीर दुःशासन [ उसे] खींच रहा है, [ पर उसका] अंत नहीं पाता ॥ यह बरियां नहिं और की, तँ करिया वह सोधि । पाहन-नाव चढ़ाई जिहिं कीने पार पयोधि ॥ ४०१ ॥ | बरिया ( वार ) = अवसर ॥ करिया--कर्ण संस्कृत में नाव की पतवारी को कहते हैं । उसी से यह शब्द बना है। इसका अर्थ पतवारी धारण करने वाला होता है ॥ ( अवतरण )- 'भक की उ िमन से अथवा गुरु की उकिं शिष्य से ( अर्थ )—यह अवसर ( भवसागर तरने का समय, अंत-समय ) और का नहीं है ( अन्य किसी से काम चल जाने के योग्य नहीं है ), [ अतः] तु वह करियर ( माँझी, केवट ) सोध ( सुधि कर, स्मरण कर ), जिसने [ करोड़ों भालु और कृषि ] पाहन ( पाषाण ) की नाव पर चढ़ा कर पयोधि ( समुद्र ) से पार कर दिए । यहाँ 'वह करिया' से श्रीरामचंद्र माने गए हैं, जिन्होंने समुद्र पर पत्थर तैरा कर, भाल फपिर्यों के पार जाने के निमित्त, लंका तक पुल बना दिया था। पाबक-झर तें मेहँ-झर दाहक दुसह बिसेखि । दहै देह वैके परर्स, याहि दृगनु हाँ देखि ।। ४०२ ॥ झर-पहिले ‘झर' शब्द का अर्थ लपट, ज्वाला अथवा दाह है, और दूसरे का लगातार पानी बरसना । बिसेखि = विशेष समझ ।। ( अवतरण )-प्रापितपतिका नायिका की उकिं सखी से ( अर्थ )-[ हे सखी, ] पावक की झर (लफ्ट ) से मेघ की झड़ी को [ 7 ] विशेष १. इहि ( ३, ४ ) । २, बिरिया ( ३ ), बेरिया (४) । ३. कीने ( १, २ ) । ४. मेघ ( ३, ५ ) । ५. वाकों ( ३, ५ )। ६. पररासि ( ५ ) ।