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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२०६

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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर अाँखाँ मैं रुखाई धारण की है। पर उस बनावटी रुखाई ही से उसका प्रेम लक्षित कर के सखी कहती है-- ( अभं) -[ हे सखी, ] करोडों यल [ क्यों न ] किए जायें, पर [ उस ] नागर को स्नेह [ ऐसा विलक्षण है कि ] छिप नहीं सकता। [ तेरे ] नयन [ आज ! नई रुखाई से (नई रुखाई धारण करने के कारण )[ तेरा ] चिकना (स्निग्ध, अनुरक्त) चित्त कहे देते हैं ( बताए देते हैं ) ॥ लाल, तुम्हारे रूप की, कहौ, रीति यह कौन ।। जासौं लागत पलकु दृग लागत पलक पलौ न ॥ ३९८ ॥ ( अवतरण )--1नुरागिनी की सखी अथवा दूत नायक से उसका विरह निवेदन करती हुई उसकी अनिद्रा दशा कहती है-- ( अर्थ )--हे लाल !! भला ] कहो [ तो सही !, तुम्हारे रूप की यह कौन [विलक्षण ] रीति है [ कि ] जिससे पल मात्र लगते ही [ फिर ] दृग पलक से पल भर भी नहीं लगते ( छू जाते, अर्थात् पलकें खुली ही रहती हैं, नेत्रों पर हँपतीं नहीं )॥ कालबूत दूती विना जुरै न और उपाइ । फिरि तक टेरें यनै पाकै प्रेम-लदाइ ।। ३९९ ॥ कालबूत---यह फ़ारसी शब्द 'कालबुद' का अपभ्रंश है । इसका अर्थ वह ढाँचा है, जिस पर कोई वस्तु, आकार शुद्ध करने के निमित्त, चढ़ाई जाती हैं, जैसे टोपी का कालबूते, जूते का कालबूत इत्यादि । यहाँ कालबूत का अर्थ मट्टी अथवा ईट इत्यादि का वह ढाँचा है, जो छत अथवा द्वार का कड़ा जोड़ने के समय, सहारे के निमित्त, उसके नीचे दिया जाता है । दाइ ( लदाव ) = छत अथवा द्वार के कड़े की जुड़ाई, जो कालबूत के सहारे की जाती है । | ( अवतरण )-पहिले तो नायिका ने दूत के द्वारा नायक से प्रेम दृढ़ कर लिया, और फिर उसको छाँटा बतखा कर अलग ही अलग मिलने जुलने लगी । उसके इसी व्यवहार पर दूसी उसको उक्षाहना तेती है ( अर्थ )-दूत-रूपी कालबूत के विना और [ किसी ] उपाय से [ प्रेम-रूप लाव] नहीं जुड़ता। [ पर ] फिर [ उस ] प्रेम-रुपी सदाच के के ( भली भाँति पुष्ट ) हो जाने पर उसके ( उस दूती के ) टारे [ ही ] बन आता है। ०. रह्यौ ऍाँच, अंतु न ले है अवधि-दुसासनु पीरु । आली, वाढतु बिरहु ज्यौं पंचाली की थीह ॥ ४०० ।। अवधि = सीमा । यहाँ अवधि का अर्थ प्रियतम के आने का निश्चित दिन है ॥ तुसासनु ( दुःशा१. लागे (४) । २. बरं ( ५ ) । ३. लसे ( २ ) । ४. प्रेम (१) । ५. लौ (२) ।